
देहु वि जित्थु ण अप्पणउ तहिँ अप्पणउ किं अण्णु ।
पर-कारणि मण गुरुव तुहुँ सिव-संगमु अवगण्णु ॥145॥
देहोऽपि यत्र नात्मीयः तत्रात्मीयं किमन्यत् ।
परकारणे मा मुह्य (?) त्वं शिवसंगमं अवगण्य ॥१४५॥
अन्वयार्थ : [यत्र] जहाँ [देहोऽपि] शरीर भी [आत्मीयः न] अपना नहीं है, [तत्र] उसमें [अन्यत्] अन्य [आत्मीयं किं] क्या अपना हो सकता है ? [त्वं] इस कारण तू [शिवसंगमं] मोक्ष का संगम [अवगण्य] छोड़कर [परकारणे] पर उपकरणों में [मा मुह्य] ममत्व मत कर ।
Meaning : When even one's body is not one's own, how can other objects become his? Therefore do not disregard, for the sake of others, Shiva. Sangama .
श्रीब्रह्मदेव