
मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्व-संयोजन-चतुष्टये ।
क्षयं शमं द्वयं प्राप्ते सप्तधा मोहकर्मणि ॥17॥
क्षायिकं शामिकं ज्ञेयं क्षायोपशमिकं त्रिधा ।
तत्रापि क्षायिकं साध्यं साधनं द्वितयं परम् ॥18॥
अन्वयार्थ : मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्वसंयोजनचतुष्टये सप्तधा मोहकर्मणि क्षयं शमं द्वयं प्राप्ते क्षायिकं शामिकं क्षयोपशामिकं त्रिधा ज्ञेयं । तत्रापि क्षायिकं साध्यं , परं द्वितयं साधनं ।
मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति ये तीन दर्शनमोहनीय और संयोजन चतुष्टय अर्थात् अनंतानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभ ये चार चारित्रमोहनीय - इसप्रकार कुल मिलाकर मोहनीयकर्म की सात प्रकृतियाँ क्षय को, उपशम को और क्षयोपशम को प्राप्त होने पर क्रमश: क्षायिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक इस तरह तीन प्रकार का सम्यक्त्व होता है । उन तीनों सम्यक्त्वों में क्षायिक सम्यक्त्व साध्य है और शेष दो औपशमिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व साधन है ।