सर्वार्थसिद्धि :
तत्त्व शब्द भाव सामान्य का वाचक है, क्योंकि 'तत्' यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम सामान्य अर्थ में रहता है अत: उसका भाव तत्त्व कहलाया। यहाँ 'तत्' पद से कोई भी पदार्थ लिया गया है। आशय यह है कि जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है उसका उस रूप होना यही तत्त्व शब्द का अर्थ है। अर्थ शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है... अर्यते निश्चीयते इत्यर्थ: - जो निश्चय किया जाता है। यहाँ तत्त्व और अर्थ इन दोनों शब्दों के संयोग से तत्त्वार्थ शब्द बना है जो 'तत्त्वेन अर्थस्तत्त्वार्थ:' ऐसा समास करने पर प्राप्त होता है। अथवा भाव-द्वारा भाववाले पदार्थ का कथन किया जाता है, क्योंकि भाव भाववाले से अलग नहीं पाया जाता। ऐसी हालत में इसका समास होगा 'तत्त्वमेव अर्थ: तत्त्वार्थ:'। तत्त्वार्थ का श्रद्धान तत्त्वार्थश्रद्धान कहलाता है। उसे ही सम्यग्दर्शन जानना चाहिए । शंका – दर्शन शब्द 'दृशि' धातु से बना है जिसका अर्थ आलोक है, अत: इससे श्रद्धानरूप अर्थ का ज्ञान नहीं हो सकता है ? समाधान – धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं, अत: 'दृशि' धातु का श्रद्धानरूप अर्थ करने में कोई दोष नहीं है। शंका – यहाँ 'दृशि' धातु का प्रसिद्ध अर्थ क्यों छोड़ दिया है ? समाधान – मोक्षमार्ग का प्रकरण होने से। तत्त्वार्थों का श्रद्धान आत्मा का परिणाम है वह मोक्ष का साधन बन जाता है, क्योंकि वह भव्यों के ही पाया जाता है, किन्तु आलोक चक्षु आदि के निमित्त से होता है जो साधारण रूप से सब संसारी जीवों के पाया जाता है, अत: उसे मोक्षमार्ग मानना युक्त नहीं है। शंका – सूत्रमें 'तत्त्वार्थश्रद्धानम्' के स्थान में 'अर्थश्रद्धानम्' इतना कहना पर्याप्त है ? समाधान – इससे अर्थ शब्द के धन, प्रयोजन और अभिधेय आदि जितने भी अर्थ हैं उन सबके ग्रहण का प्रसंग आता है जो युक्त नहीं है, अत: 'अर्थश्रद्धानम्' केवल इतना नहीं कहा है। शंका – तब 'तत्त्वश्रद्धानम्' इतना ही ग्रहण करना चाहिए ? समाधान – इससे केवल भाव मात्र के ग्रहण का प्रसंग प्राप्त होता है। कितने ही लोग (वैशेषिक) तत्त्व पद से सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व और कर्मत्व इत्यादि का ग्रहण करते हैं। अब यदि सूत्र में 'तत्त्वश्रद्धानम्' इतना ही रहने दिया जाता है तो इससे इन सबका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है जो युक्त नहीं है । अथवा तत्त्व शब्द एकत्ववाची है, इसलिये सूत्र में केवल तत्त्व पद के रखने से 'सब सर्वथा एक हैं' इस प्रकार स्वीकार करने का प्रसंग प्राप्त होता है। 'यह सब दृश्य व अदृश्य जग पुरुषस्वरूप ही है' ऐसा किन्हीं ने माना भी है। किन्तु ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष और अनुमान से विरोध आता है, अत: इन सब दोषों के दूर करने के लिए सूत्र में 'तत्त्व' और 'अर्थ' इन दोनों पदों का ग्रहण किया है । सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है – सराग सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति लक्षणवाला सराग सम्यग्दर्शन है और आत्मा की विशुद्धिमात्र वीतराग सम्यग्दर्शन है । अब जीवादि पदार्थों को विषय करने वाला यह सम्यग्दर्शन किस प्रकार उत्पन्न होता है इस बात के बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं - |
राजवार्तिक :
1-2. सम्यक् यह प्रशंसार्थक शब्द (निपात) है। यह प्रशस्त रूप, गति, जाति, कुल, आयु, विज्ञान आदि अभ्युदय और निःश्रेयस का प्रधान कारण होता है। 'सम्यगिष्टार्थतत्त्वयोः' इस प्रमाण के अनुसार सम्यक् शब्द का प्रयोग इष्टार्थ और तत्त्व अर्थ में होता है अतः इसका प्रशंसा अर्थ उचित नहीं है, इस शंका का समाधान यह है कि निपात शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं, अतः प्रशंसा अर्थ मानने में कोई विरोध नहीं है। अथवा सम्यक् का अर्थ 'तत्त्व' भी किया जा सकता है जिसका अर्थ होगा 'तत्त्वदर्शन'। अथवा, यह क्विप् प्रत्ययान्त शब्द है । इसका अर्थ है जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही जाननेवाला। दर्शन शब्द करणसाधन, कर्तृसाधन और भावसाधन तीनों रूप है। 3-4. प्रश्न – दर्शन दृशि धातु से बना है और दृशि धातु का अर्थ देखना है । अतः दर्शन का श्रद्धान अर्थ नहीं हो सकता ? उत्तर – धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं, इसलिए उनमें से श्रद्धान अर्थ भी ले लिया जायगा। चूंकि यहां मोक्ष का प्रकरण है अतः दर्शन का देखना अर्थ इष्ट नहीं है किन्तु तत्त्वश्रद्धान अर्थ ही इष्ट है। 5-6. तत्त्व शब्द भावसामान्य का वाचक है। 'तत्' यह सर्वनाम है जो भाव-सामान्यवाची है। अतः तत्त्व शब्द का स्पष्ट अर्थ है - जो पदार्थ जिस रूप से है उसका उसी रूप होना। अर्थ माने जो जाना जाय । तत्त्वार्थ माने जो पदार्थ जिस रूप से स्थित है उसका उसी रूप से ग्रहण । तात्पर्य यह कि जिसके होने पर तत्त्वार्थ-अर्थात् वस्तु का यथार्थ ग्रहण हो उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। 7-8. जिस प्रकार दर्शन शब्द करण, भाव और कर्म तीनों साधनों में निष्पन्न होता है उसी तरह श्रद्धान शब्द भी
9-16. प्रश्न – मोहनीय-कर्म की प्रकृतियों में भी 'सम्यक्त्व' नाम की कर्मप्रकृति है और 'निर्देशस्वामित्व' आदि सूत्र के विवरण से भी ज्ञात होता है कि यहां सम्यक्त्व कर्म प्रकृति का सम्यग्दर्शन से ग्रहण है अतः सम्यक्त्व को कर्मपुद्गल रूप मानना चाहिए ? उत्तर – यहां मोक्ष के कारणों का प्रकरण है, अतः उपादानभूत आत्मपरिणाम ही विवक्षित है । औपशमिक आदि सम्यग्दर्शन सीधे आत्मस्वरूप ही हैं। सम्यक्त्व प्रकृति तो पुद्गल की पर्याय है। यद्यपि उत्पत्ति स्व और पर उभय निमित्तों से होती है फिर भी पर-पदार्थ तो उपकरणमात्र हैं, साधारण निमित्त हैं। वस्तुतः मिट्टी ही घड़ा बनती है, दण्ड आदि तो साधारण उपकरण हैं, बाह्य-साधन हैं। इसी तरह सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में भी आत्म-परिणमन ही मुख्य है। इस दर्शनमोह नामक कर्म को आत्मविशुद्धि के द्वारा ही रसघात करके स्वल्पघाती क्षीणशक्तिक सम्यक्त्व कर्म बनाया जाता है। अतः यह सम्यक्त्व प्रकृति आत्मस्वरूप मोक्ष का प्रधान कारण नहीं हो सकती। आत्मा ही अपनी शक्ति से दर्शन पर्याय को धारण करता है अतः वही मोक्ष का कारण है। आत्मा की आन्तरिक सम्यग्दर्शन पर्याय अहेय होती है जब कि सम्यक्त्व प्रकृति हेय । इस सम्यक्त्व प्रकृति का नाश करके ही क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है। अतः आभ्यन्तर स्वशक्तिरूप ही सम्यग्दर्शन हो सकता है सम्यक्त्व कर्मपुद्गलरूप नहीं। आभ्यन्तर परिणमन ही प्रधान होता है, वही प्रत्यासन्न कारण होता है और उसी रूप से आत्मा परिणति करता है अतः अहेय होने से प्रधान और प्रत्यासन्न कारण होने से आत्मपरिणामरूप सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का कारण हो सकता है न कि कर्मपुद्गल । अल्पबहुत्व का विवेचन भी उपशम सम्यग्दर्शन आदि आत्मपरिणाम के आधार से किया जा सकता है, उसके लिए भी कर्मपुद्गल की कोई आवश्यकता नहीं है।
17-21. प्रश्न – अर्थश्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन कहना चाहिए, यहां 'तत्त्व' पद व्यर्थ है। इससे सूत्र में भी लघुता आयगी? उत्तर – यदि तत्त्व पद न दिया जाय सभी अर्थों के श्रद्धान का नाम सम्यग्दर्शन हो जायगा। मिथ्यावादिप्रणीत अर्थ भी उनके द्वारा जाने तो जाते ही हैं पर वे तत्त्व नहीं हैं । अर्थ शब्द के अनेक अर्थ हैं, अतः सन्देह भी होगा कि किस अर्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा जाय ? वैशेषिक शास्त्र में द्रव्य, गुण और कर्म इन तीन पदार्थों की अर्थ संज्ञा है । 'आप यहां किस अर्थ से आए' यहां अर्थ शब्द का प्रयोजन अर्थ है। 'अर्थवान् देवदत्तः' में अर्थवान् का अर्थ धनवान् है । 'शब्दार्थसम्बन्ध' में अर्थ का तात्पर्य अभिधेय है। इस तरह अर्थ शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। यह तर्क तो अनुचित है कि - 'सभी अर्थों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन मानने पर सभी का अनुग्रह हो जायगा, आपको सर्वानुग्रह से द्वेष क्यों है'; क्योंकि असत् अर्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन नाम नहीं पा सकता, अतः सर्वानुग्रह के विचार से ही सन्मार्ग प्रदर्शन बुद्धि से अर्थ के साथ 'तत्त्व' विशेषण लगा दिया है जिससे लोग असदों में न भटक जांय । यद्यपि 'अर्थते इति अर्थः' अर्थात् जो जाना जाय वह अर्थ, इस व्युत्पत्ति के अनुसार मिथ्यावादिप्रणीत अर्थ तो ज्ञेय हो ही नहीं सकते क्योंकि वे अविद्यमान हैं अतः अर्थपद का इतना विशिष्ट अर्थ करके ही तत्त्व पद का कार्य चलाया जा सकता है किन्तु मिथ्यात्व के उदय में इस आत्मा को अस्ति-नास्ति, नित्य-अनित्य आदि एकान्तों में मिथ्या अर्थबुद्धि होने लगती है, जैसे कि पित्तज्वर वाले को मधुर रस भी कटुक मालूम होता है। अतः इन एकान्त अर्थों का निराकरण करने के लिए 'तत्त्व' पद दिया ही जाना चाहिए। 22-25. यद्यपि 'तत्त्व ही अर्थ है' यह विग्रह करने पर तत्त्व के कहने से कार्य चल जाता है फिर भी अर्थ पद का ग्रहण निर्दोष प्रतिपत्ति के लिए किया गया है। यथा - यदि 'तत्त्व है' इस श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा जाय, तो एकान्तवादियों को भी 'नास्ति आत्मा' इत्यादि रूप से तत्त्वश्रद्धा होती है अतः उनकी श्रद्धा को भी सम्यग्दर्शन कहना होगा। यदि 'तत्त्व की श्रद्धा' को सम्यग्दर्शन कहा जाय, तो तत्त्व अर्थात् भावसामान्य की श्रद्धा भी सम्यक्त्व कही जायगी। 'तत्त्व-भाव-सामान्य एक स्वतन्त्र पदार्थ है' यह मान्यता वैशेषिक की है। वे यह भी कहते हैं कि द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व आदि सामान्य द्रव्यादि से भिन्न हैं । अथवा, तत्त्व-एकत्व, 'पुरुषरूप ही यह जगत् है' इस ब्रह्मैकवाद के श्रद्धान को भी सम्यग्दर्शनत्व का प्रसङ्ग प्राप्त होगा। किन्तु यह उचित नहीं है क्योंकि अद्वैतवाद में क्रियाकारक आदि समस्त भेद-व्यवहार का लोप हो जाता है। यदि 'तत्त्वेन-तत्त्वरूप से श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं तो 'किस का श्रद्धान, किसमें श्रद्धान' ये प्रश्न खड़े रहते हैं । अतः अर्थपद का ग्रहण अत्यन्त आवश्यक है अर्थात् तत्त्वरूप से प्रसिद्ध अर्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। 26-28. कोई वादी इच्छापूर्वक श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। उनका यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि भी बहुश्रुतत्व दिखाने के लिए या जैनमत को पराजित करने के लिए अर्हत्तत्त्वों का झूठा ही श्रद्धान कर लेते हैं, जैन शास्त्रों को पढ़ते हैं। इच्छा के बिना तो यह हो ही नहीं सकता। अतः इन्हें भी सम्यग्दर्शन मानना होगा। यदि इच्छा का नाम सम्यग्दर्शन हो तो इच्छा तो लोभ की पर्याय है, निर्मोही केवली के तो इच्छा नहीं होती अतः केवलीके सम्यक्त्व का अभाव हो जायगा। अतः 'जिसके होने पर आत्मा यथाभूत अर्थ को ग्रहण करता है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं' यही लक्षण उचित है । 29-31. सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है - १ सराग सम्यग्दर्शन, 2 वीतरागसम्यग्दर्शन । प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य से जिसका स्वरूप अभिव्यक्त होता है वह सरागसम्यग्दर्शन है।
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