+ उत्पत्ति के आधार पर सम्यग्दर्शन के भेद -
तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥3॥
अन्वयार्थ : वह (सम्‍यग्‍दर्शन) निसर्ग से और अधिगम से उत्‍पन्‍न होता है ॥३॥
  • सम्यग्दर्शन
    • निसर्गज
    • अधिगमज
Meaning : That (Samyagdarsana or the right view) comes about in two ways - either naturally that is in the natural course or through attainment that is through external means such as instruction etc.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

निसर्ग का अर्थ स्‍वभाव है और अधिगम का अर्थ पदार्थ का ज्ञान है । सूत्र में इन दोनों का हेतुरूप से निर्देश किया है ।

शंका – इन दोनों का किसके हेतुरूप से निर्देश किया है ?

समाधान –
क्रिया के ।

शंका – वह कौन-सी क्रिया है ?

समाधान –
'उत्पन्‍न होता है' यह क्रिया है। यद्यपि इसका उल्‍लेख सूत्र में नहीं किया है तथापि इसका अध्‍याहार कर लेना चाहिए, क्‍योंकि सूत्र उपस्‍कार सहित होते हैं । यह सम्‍यग्‍दर्शन निसर्ग से और अधिगम से उत्‍पन्‍न होता है यह इस सूत्र का तात्‍पर्य है ।

शंका – निसर्गज सम्‍यग्‍दर्शन में पदार्थों का ज्ञान होता है या नहीं। यदि होता है तो वह भी अधिगमज ही हुआ, उससे भिन्‍न नहीं । यदि नहीं होता है तो जिसने पदार्थों को नहीं जाना है उसे उनका श्रद्धान कैसे हो सकता है ?

समाधान –
यह कोई दोष नहीं, क्‍योंकि दोनों सम्‍यग्‍दर्शनों में दर्शनमोहनीय का उपशम, क्षय या क्षयोपशमरूप अन्‍तरंग कारण समान है। इसके रहते हुए जो बाह्य उपदेश के बिना होता है वह नैसर्गिक सम्‍यग्‍दर्शन है और जो बाह्य उपदेशपूर्वक जीवादि पदार्थों के ज्ञान के निमित्त से होता है वह अधिगमज सम्‍यग्‍दर्शन है । यही इन दोनोंमें भेद है ।

शंका – सूत्र में 'तत्' पद का ग्रहण किसलिए किया है ?

समाधान –
इस सूत्र से पूर्व के सूत्र में सम्‍यग्‍दर्शन का ग्रहण किया है उसी का निर्देश करने के लिए यहाँ 'तत्' पद का ग्रहण किया है। अनन्‍तरवर्ती सूत्र में सम्‍यग्‍दर्शन का ही उल्‍लेख किया है उसे ही यहाँ 'तत्' इस पद-द्वारा निर्दिष्‍ट किया गया है । यदि 'तत्' पद न देते तो मोक्षमार्ग का प्रकरण होने से उसका यहाँ ग्रहण हो जाता ।

शंका – 'अगले सूत्र में जो विधि-निषेध किया जाता है वह अव्‍य‍वहित पूर्व का ही समझा जाता है' इस नियम के अनुसार अनन्‍तरवर्ती सूत्र में कहे गये सम्‍यग्‍दर्शन का ग्रहण स्‍वत:सिद्ध है, अत: सूत्र में 'तत्' पद देने की आवश्‍यकता नहीं है ?

समाधान –
नहीं, क्‍योंकि 'समीपवर्ती से प्रधान बलवान् होता है' इस नियम के अनुसार यहाँ मोक्षमार्ग का ही ग्रहण होता । किन्‍तु य‍ह बात इष्‍ट नहीं है अत: सूत्र में 'तत्' पद दिया है ।

अब तत्त्व कौन-कौन हैं इस बात के बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -
राजवार्तिक :

यहां 'उत्पद्यते-उत्पन्न होता है' इस क्रिया का अध्याहार कर लेना चाहिए।

1-6. प्रश्न – निसर्गज सम्यग्दर्शन नहीं बन सकता; क्योंकि तत्त्वाधिगम हुए बिना उनका श्रद्धान कैसे हो सकता है ? जब तक रसायन का ज्ञान नहीं होगा तब तक रसायन की श्रद्धा हो ही नहीं सकती। अतः जब प्रत्येक सम्यग्दर्शन के लिए तत्त्वज्ञान आवश्यक है तब निसर्गज सम्यग्दर्शन नहीं बन सकता। जिस प्रकार वेदार्थ को जाने बिना भी शूद्र को वेदविषयक भक्ति हो जाती है उसी तरह अनधिगत तत्त्व में श्रद्धा भी हो सकती है' यह कथन उपयुक्त नहीं है; क्योंकि शूद्र को महाभारत आदि ग्रन्थों से वेद की महिमा सुनकर या वेदपाठियों से वेद के महत्त्व को जानकर वेदभक्ति होना उचित है पर ऐसी भक्ति नैसर्गिक नहीं कही जा सकती। किन्तु जीवादितत्त्व विषयक ज्ञान यदि किसी भी प्रकार से पहिले होता है तो निसर्गज सम्यग्दर्शन नहीं हो सकेगा। इसी तरह मणि की विशेष सामर्थ्य को न जानकर सामान्य से उसकी चमक-दमक को देखकर मणि का ग्रहण और फल का मिलना ठीक भी है पर जीवादि को सामान्यरूप से भी बिना जाने नैसर्गिक श्रद्धान का होना कैसे संभव है ? यदि सामान्यज्ञान हो जाता है तो वह अधिगमज ही सम्यग्दर्शन कहलायगा नैसर्गिक नहीं। जिस समय इस जीव के सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है ठीक उसी समय इसके मत्यज्ञान आदि की निवृत्तिपूर्वक मतिज्ञान आदि सम्यग्ज्ञान सूर्य के ताप और प्रकाश की तरह युगपत् उत्पन्न हो जाते हैं अत: नैसगिक सम्यग्दर्शन की स्वतन्त्र सत्ता नहीं बन पाती; क्योंकि जिसके ज्ञान से पहिले सम्यग्दर्शन हो उसी के वह नैसर्गिक कहा जायगा। यहां तो दोनों ही साथ साथ होते हैं।

उत्तर –
दोनों सम्यग्दर्शनों में अन्तरंग कारण तो दर्शनमोह का उपशम, क्षय या क्षयोपशम समान है। इसके होने पर जो सम्यग्दर्शन बाह्योपदेश के बिना प्रकट होता है वह निसर्गज कहलाता है तथा जो परोपदेश से होता है वह अधिगमज । लोक में भी शेर, भेड़िया, चीता आदि में शूरा-क्रूरता आदि परोपदेश के बिना होने से नैसर्गिक कहे जाते हैं यद्यपि उनमें ये सब कर्मोदयरूप निमित्त से होने के कारण सर्वथा आकस्मिक नहीं है फिर भी परोपदेश की अपेक्षा न होने से नैसर्गिक कहलाते हैं। अतः परोपदेश निरपेक्ष में निसर्गता स्वीकार की गई है।

7-10. प्रश्न – भव्य जीव अपने समय के अनुसार ही मोक्ष जायगा। यदि अधिगम सम्यक्त्व के बल से समय से पहिले मोक्ष-प्राप्ति की संभावना हो तभी अधिगम सम्यक्त्व की सार्थकता है। अतः एक निसर्गज सम्यक्त्व ही मानना चाहिए।

उत्तर –
यदि केवल निसर्गज या अधिगमज सम्यग्दर्शन से मोक्ष माना गया होता तो यह प्रश्न उचित था। पर मोक्ष तो ज्ञान और चारित्र सहित सम्यक्त्व से स्वीकार किया गया है। अतः विचार तो यह है कि वह सम्यग्दर्शन किन कारणों से उत्पन्न होता है। जैसे कि कुरुक्षेत्र में बाह्य प्रयत्न के बिना ही सुवर्ण मिल जाता है उसी तरह बाह्य उपदेश के बिना ही जो तत्त्वश्रद्धान प्रकट होता है उसे निसर्गज कहते हैं और जैसे सुवर्णपाषाण से बाह्य प्रयत्नों द्वारा सुवर्ण निकाला जाता है उसी तरह सदुपदेश से जो सम्यक्त्व प्रकट होता है वह अधिगमज कहलाता है। अतः यहां मोक्ष का प्रश्न ही नहीं है। फिर भव्यों की कर्मनिर्जरा का कोई समय निश्चित नहीं है और न मोक्ष का ही। कोई भव्य संख्यात काल में सिद्ध होंगे, कोई असंख्यात में और कोई अनन्त काल में। कुछ ऐसे भी हैं जो अनन्तानन्त काल में भी सिद्ध नहीं होंगे। अतः भव्य के मोक्ष के कालनियम की बात उचित नहीं है। जो व्यक्ति मात्र ज्ञान से या चारित्र से या दो से या तीन कारणों से मोक्ष मानते हैं उनके यहां 'कालानुसार मोक्ष होगा' यह प्रश्न ही नहीं होता। यदि सबका काल ही कारण मान लिया जाय तो बाह्य और आभ्यन्तर कारण-सामग्री का ही लोप हो जायगा ।

11-12. इस सूत्र में 'तत्' शब्द का निर्देश अनन्तरोक्त सम्यग्दर्शन के ग्रहण के लिए है। अन्यथा मोक्षमार्ग प्रधान था सो उसका ही ग्रहण हो जाता, और इस तरह निसर्ग से और बहुश्रुतत्व प्रदर्शन की इच्छावाले मिथ्याष्टियों को भी अधिगम से मोक्ष-मार्ग का प्रसङ्ग आ जाता । 'अनन्तर का ही विधान या प्रतिषेध होता है' यह नियम 'प्रत्यासत्ति रहने पर भी प्रधान बलवान् होता है' इस नियम से बाधित हो जाता है; अतः तत्' शब्द के बिना प्रधानभूत मोक्षमार्ग का ही सम्बन्ध हो जाता। अतः स्पष्टता के लिए 'तत्' शब्द का ग्रहण किया गया है ।