सर्वार्थसिद्धि :
इनमें-से जीव का लक्षण चेतना है जो ज्ञानादिक के भेद से अनेक प्रकार की है। जीव से विपरीत लक्षणवाला अजीव है। शुभ और अशुभ कर्मों के आने के द्वार रूप आस्रव है । आत्मा और कर्म के प्रदेशों का परस्पर मिल जाना बन्ध है । आस्रव का रोकना संवर है । कर्मों का एकदेश अलग होना निर्जरा है और सब कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना मोक्ष है । इनका विस्तार से वर्णन आगे करेंगे । सब फल जीव को मिलता है, अत: सूत्र के प्रारम्भ में जीव का ग्रहण किया है । अजीव जीव का उपकारी है यह दिखलाने के लिए जीव के बाद अजीव का कथन किया है । आस्रव जीव और अजीव दोनों को विषय करता है अत: इन दोनों के बाद आस्रव का ग्रहण किया है । बन्ध आस्रव पूर्वक होता है, इसलिए आस्रव के बाद बन्ध का कथन किया है । संवृत जीव के बन्ध नहीं होता, अत: संवर बन्ध का उलटा हुआ इस बात का ज्ञान कराने के लिए बन्ध के बाद संवर का कथन किया है । संवर के होने पर निर्जरा होती है, इसलिए संवर के पास निर्जरा कही है । मोक्ष अन्त में प्राप्त होता है, इसलिए उसका अन्त में कथन किया है । शंका – सूत्र में पुण्य और पाप का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि पदार्थ नौ हैं ऐसा दूसरे आचार्यों ने भी कथन किया है। समाधान – पुण्य और पाप का ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनका आस्रव और बन्ध में अन्तर्भाव हो जाता है। शंका – यदि ऐसा है तो सूत्र में अलग से आस्रव आदि का ग्रहण करना निरर्थक है, क्योंकि उनका जीव और अजीव में अन्तर्भाव हो जाता है । समाधान – आस्रव आदि का ग्रहण करना निरर्थक नहीं है, क्योंकि यहाँ मोक्ष का प्रकरण है इसलिए उसका कथन करना आवश्यक है। वह संसारपूर्वक होता है और संसार के प्रधान कारण आस्रव और बन्ध हैं तथा मोक्ष के प्रधान कारण संवर और निर्जरा हैं, अत: प्रधान हेतु, हेतुवाले और उनके फल के दिखलाने के लिए अलग-अलग उपदेश किया है । देखा भी जाता है कि किसी विशेष का सामान्य में अन्तर्भाव हो जाता है तो भी प्रयोजन के अनुसार उसका अलग से ग्रहण किया जाता है । जैसे क्षत्रिय आये हैं और सूरवर्मा भी। यहाँ यद्यपि सूरवर्मा का क्षत्रियों में अन्तर्भाव हो जाता है तो भी प्रयोजन के अनुसार उसका अलग से ग्रहण किया है । इसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए । शंका – तत्त्व शब्द भाववाची है यह पहले कह आये हैं, इसलिए उसका द्रव्यवाची जीवादि शब्दों के साथ समानाधिकरण कैसे हो सकता है ? समाधान – एक तो भाव द्रव्य से अलग नहीं पाया जाता, दूसरे भाव में द्रव्य का अध्यारोप कर लिया जाता है, इसलिए समानाधिकरण बन जाता है । जैसे, 'उपयोग ही आत्मा है' इस वचन में गुणवाची उपयोग शब्द के साथ द्रव्यवाची आत्मा शब्द का समानाधिकरण है उसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए । शंका – यदि ऐसा है तो विशेष्य का जो लिंग और संख्या है वही विशेषण को भी प्राप्त होते हैं ? समाधान – व्याकरण का ऐसा नियम है कि 'विशेषण-विशेष्य सम्बन्ध के रहते हुए भी शब्द शक्ति की अपेक्षा जिसने जो लिंग और संख्या प्राप्त कर ली है उसका उल्लंघन नहीं होता।' अत: यहाँ विशेष्य और विशेषण से लिंग और संख्या के अलग-अलग रहने पर भी कोई दोष नहीं है। यह क्रम प्रथम सूत्र में भी लगा लेना चाहिए । इस प्रकार पहले जो सम्यग्दर्शन आदि और जीवादि पदार्थ कहे हैं उनका शब्द प्रयोग करते समय विवक्षाभेद से जो गड़बड़ी होना सम्भव है उसको दूर करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं - |
राजवार्तिक :
1. संक्षेप और विस्तार से पदार्थों के एक से लेकर अनन्त तक विभाग किए जा सकते हैं। यथा
2-5. प्रश्न – आस्रव, बन्ध आदि पदार्थ या तो जीव की पर्याय होंगे या अजीव की, अतः इनमें ही उनका अन्तर्भाव करके दो ही पदार्थ कहना चाहिए इनका पृथक् उपदेश निरर्थक है ? उत्तर – जीव और अजीव के परस्पर संश्लेष होने पर संसार होता है, अतः संसार और मोक्ष के प्रधान कारणों के प्रतिपादन के लिए सात-तत्त्व रूप से विभाग किया है। यथा -
6-13. जीवादि शब्दों का निर्वचन इस प्रकार है
14. जीव चेतना स्वरूप है। चेतना ज्ञानदर्शन रूप होती है। इसी के कारण जीव अन्य द्रव्यों से व्यावृत्त होता है। 15. जिसमें चेतना न पाई जाय वह अजीव है। भाव की तरह अभाव भी वस्तु का ही धर्म होता है जैसे कि विपक्षाभाव हेतु का स्वरूप होता है। यदि अभाव को वस्तु का धर्म न माना जाय तो सर्वसांकर्य हो जायगा, क्योंकि प्रत्येक वस्तु में स्वभिन्न पदार्थों का अभाव होता ही है। प्रश्न – वनस्पति आदि में बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति नहीं देखी जाती अतः उनमें जीव नहीं मानना चाहिए। कहा भी है - "अपने शरीर में बुद्धिपूर्वक क्रिया बुद्धि के रहते ही देखी जाती है, वैसी क्रिया यदि अन्यत्र हो तो वहाँ भी बुद्धि का सद्भाव मानना चाहिए, अन्यथा नहीं।" उत्तर – वनस्पति आदि में भी ज्ञानादि का सद्भाव है। इसको सर्वज्ञ तो अपने प्रत्यक्ष ज्ञान से जानते हैं और हम लोग आगम से । खाद, पानी के मिलने पर पुष्टि और न मिलने पर म्लानता देखकर उनमें चैतन्य का अनुमान भी होता है । गर्भस्थजीव, मूर्च्छित और अंडस्थ जीव में बुद्धिपूर्वक स्थूल क्रिया भी नहीं दिखाई देती, अतः न दिखने मात्र से अभाव नहीं किया जा सकता। 16. पुण्य और पापरूप कर्मों के आगमन के द्वार को आस्रव कहते हैं। जैसे नदियों के द्वारा समुद्र प्रतिदिन जल से भरा जाता है वैसे ही मिथ्यादर्शन आदि स्रोतों से आत्मा में कर्म आते रहते हैं। अतः मिथ्यादर्शनादि आस्रव हैं। 17. मिथ्यादर्शनादि द्वारों से आए हुए कर्मपुद्गलों का आत्मप्रदेशों में एकक्षेत्रावगाह हो जाना बंध है। जैसे बेड़ी आदि से बँधा हुआ प्राणी परतन्त्र हो जाता है और इच्छानुसार देशादि में नहीं जा आ सकता उसी प्रकार कर्मबद्ध आत्मा परतन्त्र होकर अपना इष्ट विकास नहीं कर पाता। अनेक प्रकार के शारीर और मानस दुःखों से दुःखी होता है। 18. मिथ्यादर्शनादि आस्रव-द्वारों के निरोध को संवर कहते हैं। जैसे जिस नगर के द्वार अच्छी तरह बन्द हों वह नगर शत्रुओं को अगम्य होता है उसी तरह गुप्ति, समिति, धर्म आदि से सुसंवृत आत्मा कर्मशत्रुओं के लिए अगम्य होता है। 19. तप विशेष से संचित कर्मों का क्रमश: अंशरूप से झड़ जाना निर्जरा है। जिस प्रकार मन्त्र या औषधि आदि से निःशक्ति किया हुआ विष, दोष उत्पन्न नहीं करता उसी प्रकार तप आदि से नीरस किए गये और निःशक्ति हुए कर्म संसारचक्र को नहीं चला सकते। 20. सम्यग्दर्शनादि कारणों से संपूर्ण कर्मों का आत्यन्तिक मूलोच्छेद होना मोक्ष है। जिस प्रकार बन्धनयुक्त प्राणी स्वतन्त्र होकर यथेच्छ गमन करता है उसी तरह कर्मबन्धन-मुक्त आत्मा स्वाधीन हो अपने अनन्त ज्ञानदर्शन सुख आदि का अनुभव करता है। 21-27. समस्त मोक्षमार्गोपदेशादि प्रयत्न जीव के ही लिए किए जाते हैं अतः तत्त्वों में सर्वप्रथम जीव को स्थान दिया गया है। शरीर, वचन, मन, श्वासोच्छ्वास आदि के द्वारा अजीव आत्मा का प्रकृष्ट उपकारक है अतः जीव के बाद अजीव का ग्रहण किया गया है । जीव और पुद्गल के सम्बन्धाधीन ही आस्रव होता है और आस्रवपूर्वक बन्ध अतः इन दोनों का क्रमशः ग्रहण किया है। संवृत-सुरक्षित व्यक्ति को बंध नहीं होता अतः बंध की विपरीतता दिखाने के लिए बंध के पास संवर का ग्रहण किया है। संवर होने पर ही निर्जरा होती है अतः संवर के बाद निर्जरा का ग्रहण किया है । अन्त में मोक्ष प्राप्त होता है अतः सबके अन्त में मोक्षका ग्रहण किया गया है। 28. आस्रव और बंध या तो पुण्यरूप होते हैं या पापरूप । अतः पुण्य और पाप पदार्थों का अन्तर्भाव इन्हीं में कर दिया जाता है। 29-31. प्रश्न – सूत्र में तत्त्व शब्द भाववाची है और जीवादि शब्द द्रव्यवाची, अतः इनका व्याकरण शास्त्र के नियमानुसार एकार्थ प्रतिपादकत्वरूप सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता? उत्तर – द्रव्य और भाव में कोई भेद नहीं है, अतः अभेद-विवक्षा में दोनों ही एकार्थ-प्रतिपादक हो जाते हैं जैसे ज्ञान ही आत्मा है। चूंकि तत्त्व शब्द उपात्त-नपुसकलिंग और एकवचन है अतः जीवादि की तरह उसमें पुल्लिंगत्व और बहुवचनत्व नहीं हो सकता। |