सर्वार्थसिद्धि :
सम्यग्दर्शन के विषय-रूप से जीवादि पदार्थों का कथन किया । उनके आदि में जो जीव पदार्थ आया है उसका स्वतत्त्व क्या है यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं - जैसे कतक आदि द्रव्य के सम्बन्ध से जल में कीचड़ का उपशम हो जाता है उसी प्रकार आत्मा में कर्म की निज शक्ति का कारण-वश से प्रकट न होना उपशम है । जैसे उसी जल को दूसरे साफ बर्तन में बदल देने पर कीचड़ का अत्यन्त अभाव हो जाता है वैसे ही कर्मों का आत्मा से सर्वथा दूर हो जाना क्षय है । जिस प्रकार उसी जल में कतकादि द्रव्य के सम्बन्ध से कुछ कीचड़ का अभाव हो जाता है और कुछ बना रहता है उसी प्रकार उभयरूप भाव मिश्र है । द्रव्यादि निमित्त के वश से कर्मों के फल का प्राप्त होना उदय है । और जिनके होने में द्रव्य का स्वरूप-लाभ मात्र कारण है, वह परिणाम है । जिस भाव का प्रयोजन अर्थात् कारण उपशम है वह औपशमिक भाव है । इसी प्रकार क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक भावोंकी व्युत्पत्ति कहनी चाहिए । ये पाँच भाव असाधारण हैं, इसलिए जीवके स्वतत्त्व कहलाते हैं । सम्यग्दर्शन का प्रकरण होने से उसके तीन भेदों में से सर्वप्रथम औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है अतएव औपशमिक भाव को आदि में ग्रहण किया है । क्षायिक भाव औपशमिक भाव का प्रतियोगी है और संसारी जीवों की अपेक्षा औपशमिक सम्यग्दृष्टियों से क्षायिक सम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं अत: औपशमिक भाव के पश्चात् क्षायिक भाव को ग्रहण किया है । मिश्र-भाव इन दोनों-रूप होता है और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दृष्टियों से असंख्यातगुणे होते हें, अत: तत्पश्चात् मिश्र-भाव को ग्रहण किया है । इन सबसे अनन्तगुणे होने के कारण इन सब के अन्त में औदयिक और पारिणामिक भावों को रखा है । शंका – यहाँ 'औपशमिकक्षायिकमिश्रौदयिकपारिणामिका:' इस प्रकार द्वन्द्व समास करना चाहिए । ऐसा करनेसे सूत्रमें दो 'च' शब्द नहीं रखने पड़ते हैं । समाधान – ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सूत्र में यदि 'च' शब्द न रखकर द्वन्द्व समास करते तो मिश्र की प्रतीति अन्य गुण की अपेक्षा होती । किन्तु वाक्य में 'च' शब्दके रहने पर उससे प्रकरण में आये हुए औपशमिक और क्षायिक भाव का अनुकर्षण हो जाता है । शंका – तो फिर सूत्र में 'क्षायोपशमिक' पद का ही ग्रहण करना चाहिए ? समाधान – नहीं, क्योंकि क्षायोपशमिक पद के ग्रहण करने में गौरव है; अत: इस दोष को दूर करने के लिए क्षायोपशमिक पदका ग्रहण न करके मिश्र पद रखा है । दोनों की अपेक्षा से मिश्र पद मध्य में रखा है । औपशमिक और क्षायिक-भाव भव्य के ही होते हैं । किन्तु मिश्र-भाव अभव्य के भी होता है । तथा औदयिक और पारिणामिक भावों के साथ भव्य के भी होता है । शंका – भावों के लिंग और संख्या के समान स्वतत्त्व पद का वही लिंग और संख्या प्राप्त होती है । समाधान – नहीं, क्योंकि जिस पद को जो लिंग और संख्या प्राप्त हो गयी है उसका वही लिंग और संख्या बनी रहती है । स्वतत्त्व का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - स्वं तत्त्वं स्वतत्त्वम् - जिस वस्तु का जो भाव है वह तत्त्व है और स्व तत्त्व स्वतत्त्व है । उस एक आत्मा के जो औपशमिक आदि भाव हैं, उनके कोई भेद हैं या नहीं ? भेद हैं । यदि ऐसा है तो इनके भेदों का कथन करना चाहिए, इसलिए आगे का सूत्र कहते हैं - |
राजवार्तिक :
1. जैसे कतकफल या निर्मली के डालने से मैले पानी का मैल नीचे बैठ जाता है और जल निर्मल हो जाता है उसी तरह परिणामों की विशुद्धि से कर्मों की शक्ति का अनुद्भूत रहना उपशम है। उपशम के लिए जो भाव होते हैं वे औपशमिक हैं। 2. जिस जल का मैल नीचे बैठा हो उसे यदि दूसरे बर्तन में रख दिया जाय तो जैसे उसमें अत्यन्त निर्मलता होती है उसी तरह कर्मों की अत्यन्त निवृत्ति से जो आत्यन्तिक विशुद्धि होती है वह क्षय है और कर्मक्षय के लिए जो भाव होते हैं वे क्षायिक भाव हैं। 3. जैसे कोदों को धोने से कुछ कोदों की मदशक्ति क्षीण हो जाती है और कुछ की अक्षीण उसी तरह परिणामों की निर्मलता से कर्मों के एकदेश का क्षय और एकदेश का उपशम होना मिश्र-भाव है। इस क्षयोपशम के लिए जो भाव होते हैं उन्हें क्षायोपशमिक कहते हैं । 4. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से कर्मों का फल देना उदय है और उदयनिमित्तक भावों को औदयिक कहते हैं। 5-6. जो भाव कर्मों के उपशमादि की अपेक्षा न रखकर द्रव्य के निजस्वरूपमात्र से होते हैं उन्हें पारिणामिक कहते हैं। 7-15 यद्यपि औदयिक और पारिणामिक भव्य और अभव्य सभी जीवों में रहते हैं अतः बहुव्यापी हैं फिर भी भव्यजीवों के धर्मविशेषों को प्रधानता देने के लिए औपशमिक आदि का प्रथम ग्रहण किया है। उनमें भी औपशमिक को प्रथम इसलिए ग्रहण किया है कि सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन औपशमिक ही होता है फिर क्षायोपशमिक और फिर क्षायिक । उपशम सम्यग्दृष्टि अन्तर्मुहूर्त काल में अधिक से अधिक पल्य के असंख्यात भाग तक हो सकते हैं। अतः संख्या की दृष्टि से सभी सम्यग्दृष्टियों में अल्प हैं और उसका काल भी अल्प है। क्षायिक सम्यग्दर्शन में मिथ्यात्व, सम्यङमिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन तीनों प्रकृतियों का क्षय हो जाने से परम विशुद्धि है और क्षायिक सम्यग्दर्शन का काल तेंतीस सागर है अत: इतने समय तक संचय की दृष्टि से जीवों की संख्या औपशमिक की अपेक्षा आवलि के असंख्यात भाग से गुणित है अतः विशुद्धि और संख्या की दृष्टि से अधिक होने के कारण क्षायिक का औपशमिक के बाद ग्रहण किया है। यद्यपि क्षायिक भाव शुद्धि की दृष्टि से क्षायोपशमिक से अनन्तगुणा है तो भी छयासठ सागर काल में संचित क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियों की संख्या क्षायिक से आवलि के असंख्यात भाग गुणित है अतः क्षायिक के बाद इसका ग्रहण किया है। औदयिक और पारिणामिक की संख्या सबसे अनन्तगुणी है, अतः दोनों का अन्त में ग्रहण किया है । ये दोनों भाव सभी जीवों के समान संख्या में होते हैं तथा इनसे ही अतीन्द्रिय और अमूर्त आत्मा का ज्ञान किया जाता है। मनुष्य, तिर्यञ्च आदि गतिभाव और चैतन्य आदि भाव ही जीव के परिचायक होते हैं। इसलिए सर्वसाधारण होने से दोनों को अन्त में ग्रहण किया है । 16-18. जैसे 'गायें धन है' यहाँ गायों के भीतरी संख्या की विवक्षा न होने से सामान्य रूप से एक-वचन धन के साथ सामानाधिकरण्य बन जाता है उसी तरह औपशमिक आदि भीतरी भेद की विवक्षा न करके सामान्य स्वतत्त्व की दृष्टि से 'स्वतत्त्वम्' यह एकवचन निर्देश है। अथवा 'औपशमिक स्वतत्त्व है क्षायिक स्वतत्त्व है' इस प्रकार प्रत्येक के साथ स्वतत्त्व का सम्बन्ध कर लेना चाहिए। 19-20. सूत्र में यदि द्वन्द्व-समास किया जाता तो दो 'च' शब्द नहीं देने पड़ते फिर भी 'मिश्र' शब्द से औपशमिक और क्षायिक से भिन्न किसी तृतीय ही भाव के ग्रहण का अनिष्ट प्रसङ्ग प्राप्त होता अतः द्वन्द्व-समास नहीं किया गया है । ऐसी दशा में 'च' शब्द से उपशम और क्षय का मिला हआ मिश्र भाव ही लिया जायगा। 'क्षायोपशमिक' शब्द के ग्रहण से तो शब्दगौरव हो जाता है। 21. मध्य में 'मिश्र' शब्द के ग्रहण का प्रयोजन यह है कि भव्य जीवों के औपशमिक और क्षायिक के साथ मिश्र-भाव होता है और अभव्यों के औदयिक और पारिणामिक के साथ मिश्र-भाव होता है । इस तरह पूर्व और उत्तर दोनों ओर 'मिश्र' का सम्बन्ध हो जाय। 22. सूत्रगत 'जीवस्य' यह पद सूचित करता है कि ये भाव जीव के ही हैं अन्य द्रव्यों के नहीं। 23-25. प्रश्न – आत्मा औपशमिकादि भावों को यदि छोड़ता है तो स्वतत्त्व के छोड़ने से उष्णता के छोड़ने पर अग्नि की तरह अभाव अर्थात् शून्यता का प्रसंग होता है और यदि नहीं छोड़ता तो औदयिक आदि भावों के बने रहने से मोक्ष नहीं हो सकेगा? उत्तर – अनेकान्तवाद में अनादि पारिणामिक चैतन्य द्रव्य की दृष्टि से स्वभाव का अपरित्याग और आदिमान् औदयिक आदि पर्यायों की दृष्टि से स्वभाव का त्याग ये दोनों ही पक्ष बन जाते हैं। फिर स्वभाव के त्याग या अत्याग से तो मोक्ष होता नहीं है, मोक्ष तो सम्यग्दर्शनादि अन्तः करणों से संपूर्ण कर्मों का क्षय होने पर होता है । अग्नि उष्णता को छोड़ भी दे तो भी उसका सर्वथा अभाव नहीं होता; क्योंकि जो पुद्गल अग्नि पर्याय को धारण किए था वह अन्य रूपस्पर्शवाली दूसरी पर्याय को धारण करके पुद्गल द्रव्य बना रहता है । जैसे कि निद्रा आदि अवस्थाओं में रूपोपलब्धि न रहने पर भी नेत्र का अभाव नहीं माना जाता, अथवा केवली अवस्था में मतिज्ञानरूप रूपोपलब्धि न होने पर भी द्रव्यनेत्र रहने से नेत्र का अभाव नहीं माना जाता। उसी तरह मोक्षावस्था में भी क्षायिक-भावों के विद्यमान रहने से कर्मनिमित्तक औदयिकादि भावों का नाश होने पर भी आत्मा का अभाव नहीं होता। |