कालु अणाइ अणाइ जिउ, भव-सायरु जि अणंतु
मिच्छा-दंसण-मोहियउ, णवि सुह दुक्ख जि पत्तु ॥4॥
अनन्त है संसार-सागर जीव काल अनादि हैं
पर सुख नहीं, बस दुःख पाया मोह-मोहित जीव ने ॥
अन्वयार्थ : [कालु अणाइ] काल अनादि-अनन्त है, [अणाइ जिउ] जीव अनादि-अनन्त है और यह [भव-सायरु जि अणंतु] संसारसागर भी अनादि-अनन्त है । यहाँ [मिच्छा-दंसण-मोहियउ] मिथ्यादर्शन से मोहित जीव ने [णवि सुह] सुख नहीं [दुक्ख जि पत्तु] दुःख ही पाया ।