सुद्धु सच्चेयणु बुद्धु जिणु, केवलणाण-सहाउ
सो अप्पा अणुदिणु मुणहु, जइ चाहहु सिवलाहु ॥26॥
जाम ण भावहु जीव तुहुँ, णिम्मल अप्प-सहाउ
ताम ण लब्भइ सिवगमणु, जहिँ भावहु तहिँ जाउ ॥27॥
जबतक न भावे जीव निर्मल आतमा की भावना
तबतक न पावे मुक्ति यह लख करो वह जो भावना ॥
यदि चाहते हो मुक्त होना चेतनामय शुद्ध जिन
अर बुद्ध केवलज्ञानमय निज आतमा को जान लो ॥
अन्वयार्थ : [सुद्धु] शुद्ध, [सच्चेयणु] सचेतन, [बुद्धु] बुद्ध, [जिणु] जिन, [केवलणाण-सहाउ] केवलज्ञान स्वभावी [सो अप्पा अणुदिणु मुणहु] ऐसे आत्मा का नित्य चिंतन करो [जइ चाहहु सिवलाहु] यदि मोक्ष-लाभ चाहते हो तो ।
हे जीव ! [जाम] जब तक [णिम्मल अप्प-सहाउ] निर्मल आत्मस्वभाव की [ण भावहु तुहुँ] तू भावना नहीं करेगा, [ताम ण लब्भइ सिवगमणु] तब तक मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता [जहिँ भावहु तहिँ जाउ] जहाँ इच्छा हो, वहाँ जा ।