+ शुद्धोपयोग में पुण्य-पाप हेय -
पुण्णिं पावइ सग्ग जिउ, पावइ णरय-णिवासु
वे छंडिवि अप्पा मुणइ, तउ लब्भइ सिववासु ॥32॥
पुण्य से हो स्वर्ग नर्क निवास होवे पाप से
पर मुक्ति-रमणी प्राप्त होती आत्मा के ध्यान से ॥
अन्वयार्थ : [पुण्णिं पावइ सग्ग जिउ] पुण्य से जीव स्वर्ग पाता है और [पावइ णरय-णिवासु] पाप से नरक, [वे छंडिवि अप्पा मुणइ] दोनों को छोड़कर आत्मा को जाने [तउ लब्भइ सिववासु] तो मोक्ष प्राप्त करता है ।