सव्व अचेयण जाणि जिय, एक्क सचेयणु सारु
जो जाणेविणु परम-मुणि, लहु पावइ भवपारु ॥36॥
है आतमा बस एक चेतन आतमा ही सार है
बस और सब हैं अचेतन यह जान मुनिजन शिव लहैं ॥
अन्वयार्थ : [जिय] हे जीव [सव्व अचेयण जाणि] सर्व पदार्थों को अचेतन जानो [एक्क सचेयणु सारु] मात्र एक जीव ही सचेतन और सारभूत है [जो जाणेविणु परम-मुणि] जिसे जानकर परममुनि [लहु पावइ भवपारु] शीघ्र संसार-सागर से पार हो जाते हैं ।