मूढा देवलि देउ णवि, णवि सिलि लिप्पइ चित्ति
देहा-देवलि देउ जिणु, सो बुज्झहि समिचित्ति ॥44॥
देव देवल में नहीं रे मूढ! ना चित्राम में
वे देह-देवल में रहें सम चित्त से यह जान ले ॥
अन्वयार्थ : [मूढा देवलि देउ णवि] हे मूढ़ ! देव मन्दिर में नहीं है, [णवि सिलि लिप्पइ चित्ति] किसी मूर्ति, लेप या चित्र में भी देव नहीं है, [देहा-देवलि देउ जिणु] देव तो इस देहरूपी देवालय में है, [सो बुज्झहि समिचित्ति] उसे तू समभाव से जान ।