+ राग-द्वेष रहित आत्मस्थ होना ही धर्म -
राय-रोस बे परिहरिवि, जो अप्पाणि वसेइ
सो धम्मु वि जिण-उत्तियउ, जो पंचम-गइ णेइ ॥48॥
परिहार कर रुष-राग आतम में बसे जो आतमा
बस पायगा पंचम गति वह आतमा धर्मातमा ॥
अन्वयार्थ : [राय-रोस बे परिहरिवि] राग-द्वेष - इन दोनों को छोड़कर [जो अप्पाणि वसेइ] जो आत्मा में वास करता है, [सो धम्मु वि जिण-उत्तियउ] उसे ही जिनेन्द्र-देव ने धर्म कहा है [जो पंचम-गइ णेइ] यही पंचम गति (मोक्ष) में ले जाता है ।