+ पुद्गल व जगत के व्यवहार से आत्मा को भिन्न जानो -
पुग्गलु अण्णु जि अण्णु जिउ, अण्णु वि सहु ववहारु
चयहि वि पुग्गलु गहहि जिउ, लहु पावहि भवपारु ॥55॥
जीव पुद्गल भिन्न हैं अर भिन्न सब व्यवहार है
यदि तजे पुद्गल गहे आतम सहज ही भवपार है ॥
अन्वयार्थ : [पुग्गलु अण्णु जि अण्णु जिउ] पुद्गल भिन्न है और जीव भिन्न है [अण्णु वि सहु ववहारु] सब व्यवहार भी जीव से भिन्न है, [चयहि वि पुग्गलु गहहि जिउ] हे जीव ! पुद्गल को छोड़ो और जीव को ग्रहण करो, [लहु पावहि भवपारु] और शीघ्र ही संसार से पार होओ ।