जे णवि मण्णहिँ जीव फुडु, जे णवि जीउ मुणंति
ते जिण-णाहहँ उत्तिया, णउ संसारमुचंति ॥56॥
ना जानते-पहिचानते निज आतमा गहराई से
जिनवर कहें संसार-सागर पार वे होते नहीं ॥
अन्वयार्थ : [जे णवि मण्णहिँ जीव फुडु] स्पष्टत: जो आत्मा को नहीं जानते हैं [जे णवि जीउ मुणंति] और आत्मा का अनुभव नहीं करते हैं, [ते जिण-णाहहँ उत्तिया] वे, जिनेन्द्र देव कहते हैं, [णउ संसारमुचंति] संसार से मुक्त नहीं होते ।