असरीरु वि सुसरीरु मुणि, इहु सरीरु जडु जाणि
मिच्छा-मोहु परिच्चयहि, मुत्ति णियं वि ण माणि ॥61॥
अशरीर को सुशरीर अर इस देह को जड़ जान लो
सब छोड़ मिथ्या-मोह इस जड़ देह को पर मान लो ॥
अन्वयार्थ : [असरीरु वि सुसरीरु मुणि] अशरीरी को ही उत्तम शरीर जानो [इहु सरीरु जडु जाणि] यह शरीर तो जड़ है [मिच्छा-मोहु परिच्चयहि] मिथ्या-मोह का त्याग करो और [मुत्ति णियं वि ण माणि] शरीर-जैसा स्वयं को मत मानो ।