
जे परभाव चएवि मुणि, अप्पा अप्प मुणंति
केवल-णाण-सरुव लइ, ते संसारु मुचंति ॥63॥
परभाव को परित्याग जो अपनत्व आतम में करें
वे लहें केवलज्ञान अर संसार-सागर परिहरें ॥
अन्वयार्थ : [जे परभाव चएवि मुणि] जो मुनि परभावों का त्याग करके [अप्पा अप्प मुणंति] आत्मा से आत्मा का अनुभव करते हैं, [केवल-णाण-सरुव लइ] वे केवलज्ञान प्राप्तकर [ते संसारु मुचंति] संसार से मुक्त हो जाते हैं ।