
इहु परियण ण हु महुतणउ, इहु सुहु-दुक्खहँ हेउ
इम चिंतंतहँ किं करइ, लहु संसारहँ छेउ ॥67॥
'सुख-दुःख के हैं हेतु परिजन किन्तु वे परमार्थ से
मेरे नहीं' - यह सोचने से मुक्त हों भवभार से ॥
अन्वयार्थ : [इहु परियण ण हु महुतणउ] ये परिजन मेरे नहीं हैं, [इहु सुहु-दुक्खहँ हेउ] ये तो क्षणिक सुख-दुःख के हेतु हैं, [इम चिंतंतहँ किं करइ] इसकी चिंता क्यों करता है [लहु संसारहँ छेउ] शीघ्र ही संसार को छोड़ ।