
इंद फणिंद णरिंदय वि, जीवहँ सरणु ण होंति
असरणु जाणिवि मुणि-धवल, अप्पा अप्प मुणंति ॥68॥
नागेन्द्र इन्द्र नरेन्द्र भी ना आतमा को शरण दें
यह जानकर हि मुनीन्द्रजन निज आतमा शरणा गहें ॥
अन्वयार्थ : [इंद फणिंद णरिंदय वि] इन्द्र, फणीन्द्र और नरेन्द्र भी [जीवहँ सरणु ण होंति] जीवों को शरण नहीं हैं, [असरणु जाणिवि मुणि-धवल] उन सब को अशरण जानकर उत्तम मुनिराज [अप्पा अप्प मुणंति] आत्मा को आत्मा से जानते हैं ।