+ एकत्व भावना -
इक्क उपज्जइ मरइ कु वि, दुहु सुहु भुंजइ इक्कु
णरयहँ जाइ वि इक्क जिउ, तह णिव्वाणहँ इक्कु ॥69॥
एक्कुलउ जइ जाइसिहि, तो परभाव चएहि
अप्पा झायहि णाणमउ, लहु सिव-सुक्ख लहेहि ॥70॥
यदि एकला है जीव तो परभाव सब परित्याग कर
ध्या ज्ञानमय निज आतमा अर शीघ्र शिवसुख प्राप्त कर ॥
जन्मे-मरे सुख-दुःख भोगे नरक जावे एकला
अरे! मुक्तीमहल में भी जायेगा जिय एकला ॥
अन्वयार्थ : [इक्क उपज्जइ मरइ कु वि] अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मरता है, [दुहु सुहु भुंजइ इक्कु] अकेला ही दुःख-सुख भोगता है, [णरयहँ जाइ वि इक्क जिउ] अकेला ही नरक में जाता है और [तह णिव्वाणहँ इक्कु] अकेला ही निर्वाण में जाता है ।
[एक्कुलउ जइ जाइसिहि] यदि अकेला ही जाता है [तो परभाव चएहि] तो समस्त परभावों को त्याग दे और [अप्पा झायहि णाणमउ] ज्ञानमय आत्मा का ही ध्यान कर, [लहु सिव-सुक्ख लहेहि] शीघ्र ही मोक्ष-सुख प्राप्त होगा ।