
किंचैवंभूतापि च सत्ता न स्यान्निरंकुशा किन्तु ।
सप्रतिपक्षा भवति हि स्वप्रतिपक्षेण नेतरेणेह ॥15॥
अन्वयार्थ : [किंच इह] तथा इस लोक में [एवंभूता सत्ता अपि च] वस्तु के लक्षणभूत इसप्रकार की सत्ता भी [निरंकुशा न स्यात्] निरपेक्ष नहीं हैं [किन्तु हि] किन्तु निश्चय से [स्वप्रतिपक्षेण] अपने प्रतिपक्ष से [सप्रतिपक्षा भवति] सप्रतिपक्ष है [इतरेण न] निरपेक्ष नहीं है ।
जिस सत्ता को वस्तु का लक्षण बतलाया है वह सत्ता भी स्वतंत्र पदार्थ नहीं है । किन्तु अपने प्रतिपक्ष के कारण प्रतिपक्षी भावको लिये हुए है । सत्ता का जो प्रतिपक्ष है उसी के साथ सत्ता की प्रतिक्षता है दूसरे किसी के साथ नहीं ।