
अंशविभागः स्यादित्यखण्डदेशे महत्यपि द्रव्ये ।
विष्कम्भस्य क्रमतो व्योम्नीवाङगुलिवितस्तिहस्तादि: ॥24॥
प्रथमो द्वितीय इत्याद्यसंख्यदेशास्ततोप्यनन्ताश्च ।
अंशा निरंशरूपास्तावन्तो द्रव्यपर्ययाख्यास्ते ॥25॥
पर्यायाणामेतद्धर्मं यत्त्वंशकल्पनं द्रव्ये ।
तस्मादिदमनवद्यं सर्वं सुस्थं प्रमाणतश्चापि ॥26॥
अन्वयार्थ : यद्यपि द्रव्य अखण्ड प्रदेश वाला है और बड़ा भी है। तथापि उसमें विस्तार क्रम से अंशों का विभाग कल्पित किया जाता है। जिस प्रकार आकाश में विस्तार क्रम से एक अंगुल, दो अंगुल, एक विलस्त, एक हाथ आदि अंश-विभाग किया जाता है । जिसमें फिर दुबारा अंश न किया जा सके उसे ही निरंश अंश कहते हैं। ऐसे निरंशरूप अंश एक द्रव्य में - पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवाँ, संख्यात, अविभागी-असंख्यात, अनन्त, तथा च, शब्द से अनन्तानन्त तक हो सकते हैं । जितने एक द्रव्य में अंश हैं, उतनी ही उस द्रव्य की पर्याय समझनी चाहिये। प्रत्येक अंश को ही द्रव्यपर्याय कहते हैं । क्योंकि द्रव्य में जो अंशों की कल्पना की जाती है, वही पर्यायों का स्वरूप है । द्रव्य की एक समय की पर्याय उस द्रव्य का एक अंश है । इसलिये उन सम्पूर्ण अंशों का समूह ही द्रव्य है । दूसरे शब्दों में कहना चाहिये कि द्रव्य की जितनी भी अनादि-अनन्त पर्यायें हैं, उन्हीं पर्यायों का समूह द्रव्य है । अर्थात् प्रत्येक द्रव्य की एक समय में एक पर्याय होती है, और कुल समय अनादि अनन्त है, इसलिये वस्तु भी अनादि अनन्त है। अत: उपर्युक्त कहा हुआ वस्तु-स्वरूप सर्वथा निर्दोष है, और सभी सुव्यवस्थित है । यही वस्तु का स्वरूप प्रमाण से भली भांति सिद्ध है ।