
नैवं हि सर्वसङ्कर दोषत्वाद्वा सुसिद्धदृष्टान्तात् ।
तत्किं चेतनयोगादचेतनं चेतनं न स्यात् ॥42॥
अथवा विना विशेषै: प्रदेशसत्त्वं कथं प्रमीयेत ।
अपि चान्तेरण देशैर्विशेषलक्ष्मावलक्ष्यते च कथम् ॥43॥
अथ चैतयो: पृथक्त्वे हठादहेतोश्च मन्यमानेपि ।
कथमिवगुणगुणिभावः प्रमीयते सत्समानत्वात् ॥44॥
तस्मादिदमनवद्यं देशविशेषास्तु निर्विशेषास्ते ।
गुणसंज्ञकाः कथंचित्परणतिरूपाः पुनः क्षणं यावत् ॥45॥
अन्वयार्थ : उपर्युक्त आशंका ठीक नहीं है । देश को भिन्न और गुणों को देशाश्रित भिन्न स्वीकार करने से सर्व संकर दोष आवेगा । यह बात सुघटित दृष्टान्त द्वारा प्रसिद्ध है। गुणों को भिन्न मानने से क्या चेतना गुण के सम्बन्ध से अचेतन पदार्थ चेतन नहीं हो जायगा ?
दूसरी बात यह भी है कि बिना गुणों के द्रव्य के प्रदेशों की सत्ता ही नहीं जानी जा सकती अथवा बिना प्रदेशों के गुण भी नहीं जाने जा सकते ।
यदि हठ पूर्वक बिना किसी हेतु के गुण और गुणी भिन्न भिन्न सत्तावाले ही माने जावें, तो ऐसी अवस्था में दोनों की सत्ता समान होगी । सत्ता की समानता में 'यह गुण है और यह गुणी है,' यह कैसे जाना जा सकता है ?
इसलिये यह बात निर्दोष सिद्ध है कि देश-विशेष ही गुण कहलाते हैं । गुणों में गुण नहीं रहते हैं । वे गुण प्रतिक्षण परिणमनशील हैं परन्तु सर्वथा विनाशी नहीं हैं ।