यत्किंचिदस्ति वस्तु स्वतः स्वभावे स्थितं स्वभावश्च ।
अविनाभावी नियमाद्विवक्षितो भेदकर्ता स्यात्‌ ॥47॥
शक्तिर्लक्ष्मविशेषो धर्मो रूपं गुणः स्वभावश्च ।
प्रकृति: शीलं चाकृतिरेकार्थवाचका अमी शब्दा: ॥48॥
देशस्यैका शक्तिर्या काचित्‌ सा न शक्तिरन्या स्यात्‌ ।
क्रमतो वितर्क्यमाणा भवन्त्यनन्ताश्च शक्तयो व्यक्ता: ॥49॥
स्पर्शो रसश्च गन्धो वर्णो युगपद्यथा रसालफले ।
प्रतिनियतेन्द्रियगोचरचारित्वात्ते भवन्त्यनेकेपि ॥50॥
तदुदाहरणं चैतज्जीवे यद्दर्शनं गुणश्चैकः ।
तन्न ज्ञानं न सुखं चारित्रम् वा न कश्चिदितरश्च ॥51॥
एवं य: कोपि गुण: सोपि च न स्यात्तदन्यरूपो वा ।
स्वयमुच्छलन्ति तदिमा मिथो विभिन्नाश्च शक्तयोऽनन्ता: ॥52॥
अन्वयार्थ : जो कोई भी वस्तु है वह अपने स्वभाव (गुण-स्वरूप) में स्थित है और वह स्वभाव भी निश्चय से उस स्वभावी (वस्तु) से अविनाभावी-अभिन्न है परन्तु विवक्षा वश भिन्न समझा जाता है ।
शक्ति, लक्ष्म, विशेष, धर्म, रूप, गुण, स्वभाव, प्रकृति, शील, आकृति ये सभी शब्द एक अर्थ के कहने वाले हैं । सभी नाम गुण के हैं ।
देश की कोई भी एक शक्ति, दूसरी शक्तिरूप नहीं होती, इसी प्रकार क्रम से प्रत्येक शक्ति के विषय में विचार करने पर भिन्न-भिन्न अनन्त शक्तियां स्पष्ट प्रतीत होती हैं ।
जिस प्रकार आम के फल में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, चारों ही एक साथ पाये जाते हैं, वे चारों ही गुण भिन्न-भिन्न नियत इन्द्रियों द्वारा जाने जाते हैं इसलिये वे भिन्न हैं ।
सभी गुण पृथक्‌-पृथक हैं, इस विषय में यह उदाहरण है- जैसे जीव द्रव्य में जो एक दर्शन नामा गुण है, वह ज्ञान नहीं हो सकता , न सुख हो सकता, न चारित्र हो सकता अथवा और भी किसी गुण स्वरूप नहीं हो सकता, दर्शनगुण सदा दर्शनरूप ही रहेगा ।
इसी प्रकार जो कोई भी गुण है वह दूसरे गुण रूप नहीं हो सकता इसलिये द्रव्य की अनन्त शक्तियां परस्पर भिन्नता को लिये हुए भिन्न-भिन्न कार्यों द्वारा स्वयं उदित होती रहती हैं ।