
तासामन्यतरस्या भवन्त्यनन्ता निरंशका अंशाः ।
तरतमभागविशेषैरंशच्छेदै: प्रतीयमानत्वात् ॥53॥
दृष्टान्तः सुगमोऽयं शुक्लं वासस्ततोपि शुक्लतरम् ।
शुक्लतमं च ततः स्यादंशाश्चैते गुणस्य शुक्लस्य ॥54॥
अथवा ज्ञानं यावज्जीवस्यैको गुणोप्यखण्डोपि ।
सर्वजघन्यनिरंशच्छेदैरिव खण्डितोप्यनेकः स्यात् ॥55॥
अन्वयार्थ : उन शक्तियों में से प्रत्येक शक्ति के अनन्त अनन्त निरंश अंश होते हैं । हीनाधिक विशेष भेद से उन अंशों का परिज्ञान होता है ।
एक सफेद कपड़े का सुगम दृष्टान्त है। कोई कपड़ा कम सफेद होता है, कोई उससे अधिक सफेद होता है और कोई उससे भी अधिक सफेद होता है। ये सब सफेदी के ही भेद हैं । इस प्रकार की तरतमता अनेक प्रकार हो सकती है, इसलिये शुक्ल गुण के अनेक अंश कल्पित किये जाते हैं ।
दूसरा दृष्टान्त जीव के ज्ञान गुण का स्पष्ट है । जीव का ज्ञान गुण यद्यपि एक है और वह अखण्ड भी है तथापि सबसे जघन्य अंशों के भेद से खण्डित सरीखा अनेक रूप प्रतीत होता है ।