+ गुणों का छेदक्रम -
क्रमोपदेशश्चायं प्रवाहरूपो गुणः स्वभावेन ।
अर्धच्छेदेन पुनश्छेत्तव्योपि च तदर्धछेदेन ॥57॥
एवं भूयो भूयस्तदर्धछेदैस्तदर्धछेदैश्च ।
यावच्छेतुमशक्यो यः कोपि निरंशको गुणांशः स्यात्‌ ॥58॥
तेन गुणांशेन पुनर्गणिताः सर्वे भवन्त्यनन्तास्ते ।
तेषामात्मा गुण इति नहि ते गुणतः पृथक्त्वसत्ताका: ॥59॥
अन्वयार्थ : गुणों के अशों के छेद करने में क्रम कथन का उपदेश बतलाते हैं कि गुण स्वभाव से ही प्रवाह रूप है अर्थात्‌ द्रव्य अनन्तगुणात्मक पिण्ड के साथ बराबर चला जाता है। द्रव्य अनादि-अनंत है, गुण भी अनादि-अनन्त हैं । द्रव्यके साथ गुण का प्रवाह बराबर चला जाता है। वह गुण उसके अर्धच्छेदों से छिन्न भिन्न करने योग्य है अर्थात्‌ उस गुण के आधे आधे छेद करना चाहिये, इसी प्रकार बार बार उसके अर्धच्छेद करना चाहिये, तथा वहां तक करना चाहिये जहां तक कि कोई भी गुण का अंश फिर न छेदा जा सके, और वह निरंश समझा जाय । उन छेदरूप किये हुए गुणों के अंशों का जोड़ अनन्त होता है । उन्हीं अंशों का समूह गुण कहलाता है। गुणों के अंश, गुण से भिन्न सत्ता नहीं रखते हैं किन्तु उन अंशों का समूह ही एक सत्तात्मक गुण कहलाता है ।