
स यथा परिणामात्मा शुक्लादित्वादवस्थितश्च पट: ।
अनवस्थितस्तदंशैस्तरतमरूपैर्गुणस्य शुक्लस्य ॥66॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार शुक्लादि अनन्त गुणों का समूह वस्त्र अपनी अवस्थाओं को प्रति-क्षण बदलता रहता है । अवस्थाओं के बदलने पर भी शुक्लादि गुणों का नाश कभी नहीं होता है इसलिये तो वह वस्त्र नित्य है । साथ ही शुक्लादिगुणों के तरतम रूप अंशों की अपेक्षा से अनित्य भी है । क्योंकि एक अंश दूसरे अंश से भिन्न है।