+ दूसरा जीव का दृष्टान्त -
अपि चात्मा परिणामी ज्ञानगुणत्वादवस्थितोपि यथा ।
अनवस्थितस्तदंशैस्तरतमरूपैर्गुणस्य बोधस्य ॥67॥
अन्वयार्थ : आत्मा में ज्ञान गुण सदा रहता है। यदि ज्ञान गुण का आत्मा में अभाव हो जाय तो उस समय आत्मत्व ही नष्ट हो जाय । इसलिये उस गुण की अपेक्षा से तो आत्मा नित्य है, परन्तु उस गुण के निमित्त से आत्मा का परिणमन प्रतिक्षण होता रहता है, कभी ज्ञानगुण के अधिक अंश व्यक्त हो जाते हैं और कभी कम अंश प्रकट हो जाते हैं, उस ज्ञान में सदा हीनाधिकता (संसारावस्था में) होती रहती है, इस हीनाधिकता के कारण आत्मा कथंचित अनित्य भी हैं ।