
गुणपर्ययवद्द्रव्यं लक्षणमेतत्सुसिद्धमविरुद्धम् ।
गुणपर्ययसमुदायो द्रव्यं पुनरस्य भवति वाक्यार्थ: ॥72॥
गुण समुदायो द्रव्यं लक्षणमेतावताप्युशन्ति बुधाः ।
समगुणपर्यायो वा द्रव्यं कैश्चिन्निरूप्यते वृद्धै: ॥73॥
अयमत्राभिप्रायो ये देशास्तद्गुणास्तदंशाश्च ।
एकालापेन समं द्रव्यं नाम्ना त एव निश्शेषम् ॥74॥
नहि किंचित्सद्द्रव्यं केचित्सन्तो गुणाः प्रदेशाश्च ।
केचित्सन्ति तदंशा द्रव्यं तत्सन्निपाताद्वा ॥75॥
अथवापि यथा भित्तौ चित्रम् द्रव्ये तथा प्रदेशाश्च ।
सन्ति गुणाश्च तदंशाः समवायित्त्वात्तदाश्रयाद्द्रव्यम् ॥76॥
अन्वयार्थ : जिसमें गुण पर्याय पाये जाय, वह द्रव्य है । यह द्रव्य का लक्षण अच्छी तरह सिद्ध है । इस लक्षण में किसी प्रकार का विरोध नहीं आता है । 'गुण पर्याय जिसमें पाये जाये वह द्रव्य है' इस वाक्य का स्पष्ट अर्थ यह है कि गुण और पर्यायों का समुदाय ही द्रव्य है ।
कोई-कोई बुद्धिधारी 'गुण समुदाय ही द्रव्य है' ऐसा भी द्रव्य का लक्षण कहते हैं । कोई विशेष अनुभवी वृद्ध पुरुष समान रीति से होनेवाली गुणों की पर्यायों को ही द्रव्य का लक्षण बतलाते हैं ।
उपर्युक्त कथन का यह अभिप्राय है कि जो देश हैं, उन देशों में रहने वाले जो गुण हैं तथा उन गुणों के जो अंश हैं उन तीनों की ही एक आलाप से द्रव्य संज्ञा है ।
ऐसा नहीं है कि द्रव्य कोई जुदा पदार्थ हो, गुण कोई जुदा पदार्थ हो, प्रदेश जुदा पदार्थ हो, उनके अंश कोई जुदा पदार्थ हो, और उन सबके मिलाप से द्रव्य कहलाता हो ।
अथवा ऐसा भी नहीं है कि जिस प्रकार भित्ति में चित्र खिंचा रहता है अर्थात् जैसे भीति में चित्र होता है वह भित्ति में रहता है परन्तु भित्ति से जुदा पदार्थ है उसी प्रकार द्रव्य में प्रदेश, गुण, अंश रहते हैं और समवाय सम्बन्ध से उनका आश्रय द्रव्य है ।