
तन्न यतो हि गुणः स्यादुत्पादादित्रयात्मके द्रव्ये ।
तन्निन्हवे च न गुणः सर्वद्रव्यादिशून्यदोषत्वात् ॥94॥
परिणामाभावादपि द्रव्यस्य स्यादनन्यथावृत्ति: ।
तस्यामिह परलोको न स्यात्कारणमथापि कार्यं वा ॥95॥
पारिणामिनोप्यभावत् क्षणिकं परिणाममात्रमिति वस्तु ।
तन्न यतोऽभिज्ञानान्नित्यस्याप्यात्मनः प्रतीतित्वात् ॥96॥
अन्वयार्थ : शंकाकार की उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है क्योंकि उत्पादादि त्रय स्वरूप वस्तु को मानने से ही लाभ है उसके न मानने में कोई लाभ नहीं है, प्रत्युत द्रव्य, परलोक कार्य कारण आदि पदार्थों की शून्यता का प्रसंग आने से हानि है ।
परिणाम के न मानने से द्रव्य सदा एकसा ही रहेगा । उस अवस्था में परलोक कार्य, कारण आदि कोई भी नहीं ठहर सकता ।
यदि परिणामी को न माना जाय तो वस्तु क्षणिक-केवल परिणाम मात्र ठहर जायगी और यह बात बनती नहीं, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान द्वारा आत्मा की कथंचित् नित्य रूप से भी प्रतीति होती है ।