


अथ च गुणत्वं किमहो उक्तः केनापि जन्मिना सूरि: ।
प्रोचे सोदाहरणं लक्षितमिव लक्ष गणानां हि ॥103 ॥
द्रव्याश्रया गुणाःस्युर्विशेषमात्रास्तु निर्विशेषाश्च ।
करतलगतं यदेतैर्व्यक्तमिवालक्ष्यते वस्तु ॥104॥
अयमर्थो विदितार्थ: समप्रदेशाः समं विशेषा ये ।
ते ज्ञानेन विभक्ता: क्रमतः श्रेणीकृता गुणा ज्ञेयाः ॥105॥
दृष्टान्त: शुक्लाद्या यथा हि समतन्तवः समं सन्ति ।
बुद्-ध्या विभज्यमाना: क्रमतः श्रेणीकृता गुणा ज्ञेया: ॥106॥
नित्यानित्यविचारस्तेषामिह विद्यते ततः प्राय: ।
विप्रतिपत्तौ सत्यां विवदन्ते वादिनो यतो वहवः ॥107॥
जैनानामतमेतन्नित्यानित्यात्मकं यथा द्रव्यम् ।
ज्ञेयास्तथा गुणा अपि नित्यानित्यात्मकास्तदेकत्वात् ॥108॥
तत्रोदाहरणमिदं तद्भावाऽव्ययाद्गुणा नित्या: ।
तदभिज्ञानात्सिद्धं तल्लक्षणमिह यथा तदेवेदम् ॥109॥
ज्ञानं परिणामि यथा घटस्य चाकारतः पटाकृत्या ।
किं ज्ञानत्वं नष्टं न नष्टमथ चेत्कथं न नित्यं स्यात् ॥110॥
दृष्टान्तः किल वर्णो गणो यथा परिणमन् रसालफले ।
हरितात्पीतस्तत्किं वर्णत्वं नष्टमिति नित्यम् ॥111॥
वस्तु यथा परिणामि तथैत्र परिणामिनो गुणाश्चापि ।
तस्मादुत्पादव्ययद्वयमपि भवति हि गणानां तु ॥112॥
ज्ञानं गुणों यथा स्यान्नित्यं सामान्यवत्तयाऽपि यतः ।
नष्टोत्पन्नं च तथा घटं विहायाऽथ पटं परिच्छन्दत् ॥113॥
संदृष्टि रूपगुणो नित्यश्चाम्रेऽपि वर्गणामात्रतया ।
नष्टोत्पन्ने हरितात्परिणममानश्च पीतवत्त्वेन ॥114॥
अन्वयार्थ : किसी भव्य द्वारा गुण का क्या रवरूप है ऐसा प्रश्न करने पर आचार्य ने भले प्रकार से जानकर उदाहरण सहित गुणों का लक्षण कहा ॥१०३॥
जो द्रव्य के आश्रय से रहते हैं और स्वयं अन्य विशेषों से रहित हैं ऐसे जितने भी विशेष हैं वे सब गुण कहलाते हैं क्योंकि इनके द्वारा वस्तु हथेली पर रखी हुई के समान स्पष्ट प्रतीत होती है ॥१०४॥
इसका स्पष्टार्थ यह है कि द्रव्य के सभी प्रदेशों में साथ-साथ रहनेवाले और ज्ञान के द्वारा विभाग करके क्रम से एक पंक्ति में स्थापित किये गये जितने भी विशेष हैं वे सब गुण जानने चाहिये ॥१०५॥
जैसे कि सब तन्तुओं में साथ-साथ रहनेवाले ओर बुद्धि के द्वारा विभाग करके क्रम से एक पंक्ति में स्थापित किये गये जितने भी शुक्ल आदि विशेष प्राप्त होते हैं, वे सब गुण जानने चाहिये ॥१०६॥
गुणों की नित्यता और अनित्यता के विषय में सहमत न होने के कारण वादी लोग आपस में प्राय: कर बहुत विवाद करते हैं, इसलिये यहां पर उनकी नित्यानित्यता का विचार करना आवश्यक है ॥१०७॥
इस विषय में जैनों का यह मत है कि -- जैसे द्रव्य नित्यानित्यात्मक है वैसे ही गुण भी द्रव्य से अभिन्न होने के कारण नित्यानित्य होते हैं ॥१०८॥
इसका खुलासा यह है कि अपने स्वभाव का नाश न होने के कारण गुण नित्य हैं और इसकी सिद्धि प्रत्यभिज्ञान से होती है । प्रकृत में प्रत्यभिज्ञान का लक्षण है जैसे 'वही यह है' ॥१०९॥
उदाहरणार्थ -- जो ज्ञान पहले घट के आकार रूप से परिणमन कर रहा था वह यद्यपि पट के आकाररूप से बदल जाता है, तो क्या यहां ज्ञानत्व नष्ट हो जाता है ? यदि कहा जाय कि ऐसा होने पर भी ज्ञानत्व नष्ट नहीं होता है तो फिर वह नित्य क्यों न सिद्ध होगा ? ॥११०॥
या जैसे आम्रफल में रंग परिणमन करता हुआ हरे से पीला हो जाता है, तो क्या इससे वर्णसामान्य का नाश हो जाता है ? इसलिये वह नित्य है ॥१११॥
तथा जैसे वस्तु परिणमनशील है वैसे ही गुण भी परिणमनशील हैं इसलिये गुणों में उत्पाद और व्यय ये दोनों होते हैं ॥११२॥
क्योंकि जैसे ज्ञान यह गुण सामान्यरूप से नित्य है वैसे ही वह घट को छोड़कर पट को जानता हुआ नष्टोत्पन्न भी है ॥११३॥
उदाहरणार्थ -- रूप नाम का गुण आम्नफल में भी सामान्य वर्ण की अपेक्षा नित्य है फिर भी वह हरे से पीला हो जाता है इसलिये अनित्य भी है ॥११४॥