
सत्यं तत्र यतः स्यादिदमेव विवक्षितं यथा द्रव्ये ।
न गुणेभ्य: प्रथगिह तत्सदिति द्रव्यं च पर्ययाश्चेति ॥116॥
अपि नित्या: प्रतिसमयं विनापि यत्नं हि परिणमन्ति गुणा: ।
स च परिणामोऽवस्था तेषामेव न पृथक्त्वसत्ताक: ॥117॥
अन्वयार्थ : उपयुक्त कथन किसी अपेक्षा से ठीक है फिर भी द्रव्य के समान गुणों में भी यही बात विवक्षित है कि सत् अथवा द्रव्य और पर्याय ये गुणों से सर्वथा प्रथक् नहीं हैं; इसछिये द्रव्य के समान गुण भी कथंचित नित्यानित्य प्राप्त होते हैं ॥११६॥
दूसरे गुण नित्य हैं तो भी वे बिना प्रयत्न के ही प्रति-समय परिणमन करते रहते हैं; वह परिणमन उनकी ही अवस्था है उनसे जुदी नहीं है इससे भी गुणों की नित्यानित्यता सिद्ध होती है ॥११७॥