
तन्न यतः क्षणिकत्वापत्तेरिह लक्षणाद्गुणानां हि ।
तदभिज्ञानविरोधात्क्षणिकत्वं बाध्यतेऽध्यक्षात् ॥126॥
अपि चैवमेकसमये स्यादेक: कश्चिदेव तत्र गुण: ।
तन्नाशादन्यतरः स्यादिति युगपन्न सन्त्यनेकगुणाः ॥127॥
तदसद्यतः प्रमाणदृष्टान्तादपि च बाधित: पक्ष: ।
स यथा सहकारफले युगपद्वर्णादिविद्यमानत्वात् ॥128॥
अंथ चेदिति दोषभयान्नित्या: परिणामिनस्त इति पक्ष: ।
तत्किं स्यान्न गुणानामुत्पादादित्रयं समंन्यायात् ॥129॥
अपि पूर्वं च यदुक्तं द्रव्यं किल केवलं प्रदेशा: स्यु: ।
तत्र प्रदेशवत्त्वं शक्तिविशेषश्च कोऽपि सोऽपि गुण: ॥130॥
तस्माद्गुणसमुदायो द्रव्यं स्यात्पूर्वसूरिभि: प्रोक्तम् ।
अयमर्थ: खलु देशो विभज्यमाना गुणा एव ॥131॥
अन्वयार्थ : यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा लक्षण मानने से गुणों में क्षणिकता की आपत्ति प्राप्त होती है । और वह क्षणिकपना प्रत्यभिज्ञान का विरोधी है क्योंकि वह प्रत्यक्ष प्रमाण से बाघा जाता है ।
दूसरे इस मान्याता के अनुसार द्रव्य में एक समय में एक ही गुण होगा और उसके नाश होने के बाद उसमें कोई दूसरा गुण उत्पन्न होगा । एक साथ उसमें अनेक गुण नहीं पाये जायंगे ।
परंतु ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि यह पक्ष प्रमाण और दृष्टान्त दोनों से बाधित है । जैसे कि आम के फल में एक साथ वर्णादि अनेक गुण पाये जाते हैं ।
अब यदि इन दोषों के भय से तुम्हारा यह मत हो कि गुण नित्य और परिणामी हैं तो फिर इनमें एक साथ उत्पादादि त्रय होते हैं ऐसा क्यों नहीं मान लेते हो ।
और शंकाकार द्वारा पहले जो यह कहा गया था कि केवल प्रदेश ही द्रव्य कहलाते हैं सो उन प्रदेशों में जो प्रदेशत्त्व नामक शक्ति विशेष है सो वह भी एक गुण है ।
इसलिये पूर्वाचार्यों ने जो गुणों के समुदाय को द्रव्य कहा है वह ठीक ही कहा है । इसका सारांश यह है कि यदि देश अर्थात् द्रव्य का विभाग किया जाय तो गुण ही प्रतीत होंगे ।