तन्न यतोऽस्ति विशेषो व्यतिरेकस्यान्वयस्य चापि यथा ।
व्यतिरेकिणो ह्यनेकेप्येकः स्यादन्वयी गुणो नियमात्‌ ॥146॥
स यथा चैको देश: स भवति नान्‍यो भवति स चाप्यन्य: ।
सोऽपि न भवति स देशो भवति स देशश्च देशव्यतिरेक: ॥147॥
अपि यश्चैको देशो यावदभिव्याप्य वर्तते क्षेत्रम् ।
तत्तत्त्क्षेत्रं नान्यद्भवति तदन्यश्च क्षेत्रव्यतिरेक: ॥148॥
अपि चैकस्मिन्‌ समये यकाप्यवस्था भवेन्न साप्यन्या ।
भवति च सापि तदन्या द्वितीयसमयेऽपि कालव्यतिरेकः ॥149॥
भवति गुणांशः कश्चित्‌ स भवति नान्‍यो भवति स चाप्यन्य: ।
सोऽपि न भवति तदन्यो भवति तदन्योऽपि भावव्यतिरेक: ॥150॥
यदि पुनरेवं न स्यात्‌स्यादपि चैवं पुनः पुन: सैष: ।
एकांशदेशमात्रं सब स्यात्तन्न बाधितत्वात्प्राक् ॥151॥
अयमर्थ: पर्यायाः प्रत्येकं किल यथैकशः प्रोक्ता: ।
व्यतिरेकिणो ह्यनेके न तथाऽनेकत्वतोऽपि सन्ति गुणा: ॥152॥
किन्त्वेकश: स्वबुद्धौ ज्ञानं जीव: स्वसर्वसारेण ।
अथ चैकशः स्वबुद्धौ दृग्वा जीव: स्वसर्वसारेण ॥153॥
तत एव यथाऽनेके पर्याया: सैष नेति लक्षणतः ।
व्यतिरेकिणश्च न गुणास्तथेति सोऽयं न लक्षणाभावात्‌ ॥154॥
तल्लक्षणं यथा स्याज्ज्ञानं जीवो य एव तावांश्च ।
जीवो दर्शनमिति वा तदभिज्ञानात्‌ स एव तावांश्च ॥155॥
एष क्रम: सुखादिषु गुणेषु वाच्यो गुरुपदेशाद्वा ।
यो जानाति स पश्यति सुखमनुभवतीति स एवं हेतोश्च ॥156॥
अथ चोद्दिष्टं प्रागप्यर्था इति संज्ञया गुणा वाच्या: ।
तदपि न रूढिवशादिह किन्त्वर्थाधौगिकं तदेवेति ॥157॥
स्यादृगिताविति धातुस्तद्रूपोऽयं निरुच्यते तज्ज्ञै: ।
अत्यर्थोनुगतार्थादनादिसन्तानरूपतोऽपि गुण: ॥158॥
अयमर्थ: सन्ति गुणा अपि किल परिणामिनः स्वतः सिद्धाः ।
नित्यानित्यत्वादप्युत्पादादित्रयात्मकाः सम्यक् ॥159॥
अस्ति विशेषस्तेषां सति च समाने यथा गुणत्वेऽपि ।
साधारणास्‍त एके केचिदसाधारणा गुणा: सन्ति ॥160॥
साधारणास्तु यतरे ततरे नम्ना गुणा हि सामान्याः ।
ते चाऽसाधारणका यतरे ततरे गुणा विशेषाख्या: ॥161॥
तेषामिह वक्तव्ये हेतु: साधारणैर्गुणैर्यस्मात् ।
द्रव्यत्वमस्ति साध्यं द्रव्यविशेषस्तु साध्यतेत्वितरै: ॥162॥
संदृष्टिः सदिति गुण: स यथा द्रव्यत्वसाधको भवति ।
अथ च ज्ञानं गुण इति द्रव्यविशेषस्य साधको भवति ॥163॥
अन्वयार्थ : यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि व्यतिरेक और अन्वय में परस्पर भेद है । व्यतिरेकी अनेक होते हैं और अन्वयी गुण नियम से एक है ।
जैसे जो एक देश है वह वही है, दूसरा नहीं है और जो दूसरा देश है वह पहला नहीं है किन्तु वह वही है यह देश व्यतिरेक है ।
और जो एक देश जितने क्षेत्र में रहता है वह वही क्षत्र है दूसरा नहीं है और जो दूसरा क्षेत्र है वह दूसरा ही है पहला नहीं यह क्षेत्र व्यतिरेक है ।
इसी प्रकार एक समय में जो भी अवस्था होती है वह वही है, दूसरी नहीं हो सकती और जो दूसरे समय में अवस्था होती है वह दूसरी ही है पहली नहीं हो सकती, यह काल व्यतिरेक है ।
तथा जो कोई एक गुणांश है यह वही है अन्य नहीं हो सकता और जो दूसरा गुणांश है वह दूसरा ही है पहला नहीं हो सकता यह भाव-व्यतिरेक है ।
यदि व्यतिरेक को ऐसा न माना जाय तो पुनः पुनः वह यही है वह यही है, इस प्रकार का प्रत्यय होने लगेगा जिससे समग्र वस्तु एकांश देशमात्र प्राप्त हो जायगी । परन्तु ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि एकांश देशमात्र वस्तु की स्वीकारता में पहले ही बाधा दे आये हैं ।
सारांश यह है कि जितनी भी पर्याय हैं वे एक-एक समय की प्रथक्‌-प्रथक् कही गई हैं इसलिये अनेक होने पर जिस प्रकार वे व्यतिरेकी हैं उस प्रकार अनेक होने पर भी गुण व्यतिरेकी नहीं हैं ।
किन्तु एक बार अपनी बुद्धि में यदि ज्ञान ही आया है तो आत्मा का सर्वस्व होने के कारण ज्ञान ही जीव ठहरता है । अथवा एक बार अपनी बुद्धि में यदि दर्शन गुण आया है तो आत्मा का सर्वस्व होने के कारण दर्शन ही जीव ठहरता है ।
इसलिये जिस प्रकार अनेक पर्यायें 'वह यह नहीं है' इस लक्षण से व्यतिरेकी हैं इस प्रकार गुण 'वह यह नहीं हैं' इस लक्षण के न घटने से व्यतिरेकी नहीं हैं ।
अन्वय का लक्षण तो यह है कि ज्ञान ही जीव है ऐसा अनुभव में आते समय यह जीव जितना है, दर्शन ही जीव है ऐसा अनुभव में आते समय भी वह जीव उतना ही है, क्‍योंकि प्रत्यभिज्ञान से ऐसी ही सिद्धि होती है ।
पूर्वोक्त प्रकार से तथा गुरु के उपदेश से यही क्रम सुखादिक गुणों में भी कहना चाहिये, क्योंकि जो जानता है वह देखता है और वही सुख का अनुभव करता है इस हेतु से उसी बात की सिद्धि होती है ।
अब पहले 'अर्थ' इस संज्ञा द्वारा गुण कहे जाते हैं यह बतलाया जा चुका है सो यह कथन भी रौढिक न होकर यौगिक ही है
'ऋ' एक धातु है, गमन करना उसका अथ है। उससे ही यह 'अर्थ' शब्द बना है ऐसा व्याकरण के जानकार कहते हैं ।
गुणों में अनादि सन्‍तान रूप से अनुगत रूप अर्थ पाया जाता है इसलिये गुण का 'अर्थ' यह नाम सार्थक ही है ।
सारांश यह है कि गुण भी स्वत: सिद्ध और परिणामी हैं इसलिये नित्यानित्य स्वरूप होने से उनमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य अच्छी तरह से घटते हैं ।
यदपि गुणत्व सामान्य को अपेक्षा से सभी गुण समान हैं तथाप उनमें भेद भी है । उनमें कितने ही साधारण गुण हैं और कितने ही असाधारण गुण हैं ।
जितने साधारण गुण हैं वे सामान्य गुण कहलाते हैं ओर जितने असाधारण गुण हैं वे विशेष गुण कहलाते हैं । प्रकृत में उनके ऐसा कथन करने का कारण यह है कि साधारण गुणों से द्रव्य सामान्य सिद्ध किया जाता है और असाधारण गुणों से द्रव्य विशेष सिद्ध किया जाता है ।
उदाहरण यह है कि जैसे सत् यह गुण केवल सामान्य द्रव्य का साधक है और ज्ञान यह गुण द्रव्य विशेष का साधक है ।