+ पर्याय का विचार -
उक्तं हि गुणानामिह लक्ष्यं तल्लक्षणं यथाऽऽगमतः ।
सम्प्रति पर्यायाणां लक्षयं तल्लक्षणं च वक्ष्याम: ॥164॥
क्रमवर्तिनो ह्यनित्या अथ च व्यतिरेकिणश्च पर्याया: ।
उत्पादव्ययरूपा अपि च ध्रौव्यात्मकाः कथञ्चिच्च ॥165॥
तत्र व्यतिरेकित्वं प्रायः प्रागेव लक्षितं सम्यक्‌ ।
अवशिष्टविशेषमितः क्रमतः संल्लक्ष्यते यथाशक्ति ॥166॥
अस्त्यत्र यः प्रसिद्ध: क्रम इति धातुश्च पादविक्षेपे ।
क्रमति क्रम इति रूपस्तस्य स्वार्थानतिक्रमादेष: ॥167॥
वर्तन्ते तेनयत: भवितुं शीलास्तथा स्वरूपेण ।
यदि वा स एव वर्ती येषां क्रमवर्तिनस्त एवार्थात्‌ ॥168॥
अयमर्थ: प्रागेकं जातं समुच्छिद्य जायते चैकः ।
अथ नष्टे सति तस्मिन्नन्योप्युत्पद्यते यथा देश: ॥169॥
अन्वयार्थ : प्रकृत में गुणों को लक्ष्य करके आगम के अनुसार उनका लक्षण कहा । अब यहाँ पर्यायों को लक्ष्य करके उनका लक्षण कहते हैं ।
जो क्रमवर्ती, अनित्य, व्यतिरेकी, उत्पाद-व्ययरूप और कथञ्चित् ध्रौव्यात्मक होती हैं, वे पर्याय कहलाती हैं । उनमें से पर्यायों का व्यतिरेकीपना तो प्राय: पहले ही भले प्रकार से बतलाया जा चुका है । अब शेष विशेषताओं को यहाँ क्रम से शक्त्यनुसार बतलाते हैं ।
'क्रम' धातु है जो पाद विक्षेप अर्थ में प्रसिद्ध है । अपने अर्थ के अनुसार क्रम यह उसी का रूप है ।
यतः क्रम से जो वर्णन करें अथवा क्रम रूप से होने का जिनका स्वभाव है या क्रम ही जिनमें होता रहे अतः पर्यायें सार्थकरूप से क्रमवर्ती कहलाती है ।
आशय यह है कि पहले एक पर्याय का नाश करके एक अन्य पर्याय उत्पन्न होती है । फिर उसका नाश हो जाने पर दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है । यद्यपि पर्यायों का ऐसा क्रम चलता रहता है तथापि यह अपने द्रव्य के अनुसार ही होता है ।