तन्न यतः प्रत्यक्षादनुभवविषयात्तथानुमानाद्वा ।
स तथेति च नित्यस्य न तथेत्यनित्यस्य प्रतीत्वात्‌ ॥177॥
अयमर्थः परिणामि द्रव्यं नियमाद्यथा स्वतः सिद्धम् ।
प्रतिसमयं परिणमते पुनः पुनर्वा यथा प्रदीपशिखा ॥178॥
इदमस्ति पूर्वपूर्वभावविनाशेन नश्यतोंशस्य ।
यदि वा तदुत्तरोत्तरभावोत्पादेन जायमानस्य ॥179॥
तदिदं यथा स जीवो देवो मनुजाद्भवन्नथाप्यन्यः ।
कथमन्यथात्वभावं न लभेत स गोरसोऽपि नयात्‌ ॥180॥
अन्वयार्थ : यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि अनुभवमूलक प्रत्यक्ष प्रमाण से तथा अनुमान प्रमाण से 'वह वैसा ही है' इस प्रकार के नित्य की और 'वह वैसा नहीं है' इस प्रकार के अनित्य की प्रतीति होती है ।
सारांश यह है कि जिस प्रकार द्रव्य स्वतः सिद्ध है, उसी प्रकार वह नियम से परिणामी भी है । अत: वह द्रव्य प्रति-समय प्रदीप की शिखा के समान बार-बार परिणमन करता रहता है ।
किन्तु वह परिणमन पूर्व-पूर्व पर्याय के नाश द्वारा नष्ट होने वाले अंश का अथवा उत्तर-उत्तर पर्याय के उत्पाद द्वारा उत्पन्न होने वाले अंश का होता है ।
वह इस प्रकार है कि जैसे गोरस दूध से दही रूप में बदल जाता है वैसे ही जो जीव मनुष्य से देव होता है वह बदल गया है यह कैसे नहीं माना जाएगा ?