+ परिणमती हुई वस्तु को प्रति समय उत्पन्न और नष्ट क्यों न माना जाय? -
ननु चैवं सत्यसदपि किञ्चिद्वा जायते सदेव यथा ।
सदपि विनश्यत्यसदिव सदृशासदृशत्वदर्शनादितिचेत् ॥181॥
सदृशोत्पादो हि यथा स्यादुष्णः परिणमन्‌ यथा वह्नि: ।
स्यादित्यसदृशजन्मा हरितात्पीतं यथा रसालफलम्‌ ॥182॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार अन्यथाभाव के ऐसा मानने से तो मालूम होता है कि सत्‌ की तरह कुछ असत्‌ भी पैदा हो जाता है और असत्‌ की तरह कुछ सत्‌ भी विनष्ट हो जाता है, क्योंकि समानता और असमानता रूप परिणमन के देखने से ऐसा ही प्रतीत होता है ।
अग्नि का उष्णरुप परिणमन करते रहना यह सदृशोत्पाद का उदाहरण है और आम्रफल का हरे से पीला हो जाना यह असदोत्पाद का उदाहरण है ।