
नैवं यतः स्वभावादसतो जन्म न सतो विनाशो वा ।
उत्पादादित्रयमपि भवति च भावेन भावतया ॥183॥
अयमर्थः पूर्वं यो भाव: सोप्युत्तरत्र भावश्च ।
भूत्त्वा भवनं भावो नष्टोत्पन्नो न भाव इह कश्चित् ॥184॥
दृष्टान्तः परिणामी जलप्रवाहो य एव पूर्वस्मिन् ।
उत्तरकालेऽपि तथा जलप्रवाहः स एव परिणामी ॥185॥
यत्तत्र विसदृशत्वं जातेरनतिक्रमात् क्रमादेव ।
अवगाहनगुणयोगाद्देशांशानां सतामेव ॥186॥
दृष्टान्तो जीवस्य लोकासंख्यातमात्रदेशाः स्युः ।
हानिर्वृद्धिस्तेषामवगाहनविशेषतो न तु द्रव्यात् ॥187॥
यदि वा प्रदीपरोचिर्यथा प्रमाणादवस्थितं चापि ।
अतिरिक्तं न्यूनं वा गृहभाजनविशेषतोऽवगाहाच्च ॥188॥
अंशानामवगाहे दृष्टान्तः स्वांशसंस्थितं ज्ञानम् ।
अतिरिक्तं न्यूनं वा ज्ञेयाकृति तन्मयान्र तु स्वांशै: ॥189॥
तदिदं यथा हि संविद्घटं परिच्छिन्ददिहैव घटमात्रम् ।
यदि वा सर्वं लोकं स्वयमवगच्छच्च लोकमात्रं स्यात् ॥190॥
न घटाकारेपि चित: शेषांशानां निरन्वयो नाश: ।
लोकाकारेपि चित: नियतांशानां न चाऽसदुत्पत्ति ॥191॥
किन्तवस्ति च कोऽपि भुणोऽनिर्वचनीयः स्वतः सिद्ध: ।
नाम्ना चाऽगुरुलघुरिति गुरुलक्ष्य: स्वानुभूतिलक्ष्यो वा ॥192॥
अन्वयार्थ : ऐसा नहीं है, क्योंकि स्वभाव से ही असत् का उत्पाद और सत् का विनाश नहीं होता है किन्तु जो उत्पादादि तीन होते हैं, वे भी वस्तु का जैसा स्वभाव है तद्रूप ही होते हैं ।
इसका यह तात्पर्य है कि पहले जो भाव था उत्तर में भी वही भाव रहता है । भाव का अर्थ होकर होना है । किन्तु प्रकृत में जो सर्वथा नष्ट होता है और सर्वथा उत्पन्न होता है ऐसा कोई भाव नहीं माना गया है ।
इसके उदाहरण रूप में जल का प्रवाह लिया जा सकता है । परिणमनशील जो जल का प्रवाह पूर्व समय में है, परिणमन करता हुआ वही जल का प्रवाह उत्तर काल में भी पाया जाता है ।
तथापि द्रव्य में यह जो विसदृशता प्रतीत होती है सो वह अपनी जाति का त्याग किये बिना क्रम से होने वाले देशांशों के अवगाहन गुण के निमित्त से ही प्रतीत होती है ।
उदाहरणारार्थ एक जीव के प्रदेश असंख्यात प्रदेशी लोक के बराबर होते हैं सो उनकी हानि अथवा वृद्धि केवल अवगाहन की विशेषता से होती है द्रव्य की अपेक्षा से नहीं ।
अथवा दीपशिखा का प्रमाण जितना होता है वह उतना ही अवस्थित रहता है तथापि वह दीपशिखा गृह-भाजन की विशेषता से और अवगाहन की विशेषता से न्यूनाधिक होती रहती है ।
अंशों के संदर्भ में यह दृष्टान्त है कि यद्यपि ज्ञान अपने अंशों में अवस्थित है तथापि ज्ञेय के आाकार-रूप से परिणत हुआ ज्ञान ज्ञेयाकाररूप से घटता-बढ़ता रहता है किन्तु अपने अंशों के द्वारा नहीं घटता बढ़ता ।
खुलासा इस प्रकार है कि जिस समय ज्ञान घट को जानता है उस समय वह घटमात्र है और जिस समय वह सम्पूर्ण लोक को प्रत्यक्ष जानता है उस समय वह लोकमात्र है ।
तथापि घटाकार होने पर ज्ञान के शेष अंशों का सर्वथा नाश नहीं होता है और उस ज्ञान के नियत अंशों के लोकाकार होने पर असत् की उत्पत्ति नहीं होती है ।
किन्तु वचनों के अगोचर और स्वतः सिद्ध एक अगुरुलघु नाम का गुण है जिसका ज्ञान गुरु के उपदेश से और स्वानुभव प्रत्यक्ष से होता है, उसी निमित्त से यह सब व्यवस्था सिद्ध होती है ।