+ शंका -- गुण नित्य होने से उत्पाद-व्यय घटित नहीं होते, अथवा गुण में परिणमन के द्वारा गुण छोटे या बड़े होने चाहिए -
ननु चैवं सत्यर्थादुत्पादादित्रयं न संभवति ।
अपि नोपादानं किल कारणं न फलं तदनन्यात्‌ ॥193॥
अपिच गुणः स्वांशानामपर्षे दुर्बलः कथं न स्थात्‌ ।
उत्कर्षे बलवानिति दोषोऽयं दुर्जयो महानिति चेत् ॥194॥
अन्वयार्थ : 'किसी शक्ति का न तो नाश ही होता है और न उत्पाद ही होता है' यदि ऐसा माना जाता है तो द्रव्य के सदा एकरूप रहने के कारण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य नहीं घट सकते हैं और न कोई किसी का उपादान कारण ही बन सकता है और न उपादेय कार्य ही बन सकता है ।
दूसरा -- अपने अंशों का अपकर्ष मानने पर गुण दुर्बल क्यों नहीं हो जाता और उत्कर्ष मानने पर बलवान क्‍यों नहीं हो जाता; इस प्रकार यह एक महान दोष प्राप्त होता है जिसका निराकरण करना कठिन है ।