


तन्न यतः परिणामी द्रव्यं पूर्वं निरूपितं सम्यक् ।
उत्पादादित्रयमपि सुघटं नित्येऽथ नाप्यनित्येर्थे ॥195॥
जाम्बूनदे यथा सति जायन्ते कुंण्डलादयो भावाः ।
अथ सत्सु तेषु नियमादुत्पादादित्रयं भवत्येव ॥196॥
अनया प्रक्रियया किल बोद्धव्यं कारणं फलं चैव ।
यस्मादेवास्य सतस्तद्-द्वयमपि भवत्येतत् ॥197॥
आस्तामसदुत्पादः सतो विनाशस्तदन्वयादेशात् ।
स्थूलत्वं च कृशत्वं न गुणस्य च निजप्रमाणत्वात् ॥198॥
इति पर्यायाणामिह लक्षणमुक्तं यथास्थितं चाथ ।
उत्पादादित्रयमपि प्रत्येकं लक्ष्यते यथाशक्ति ॥199॥
उत्पादस्थितिभङ्गा पर्यायाणां भवन्ति किल न सतः ।
ते पर्याया द्रव्यं तस्माद्-द्रव्यं हि तत्त्रितयम् ॥200॥
तत्रोत्पादोऽवस्था प्रत्यग्रं परिणतस्य तस्य सतः ।
सदसद्भावनिषद्धं तदतद्भावत्ववन्नयादेशात् ॥201॥
अपि च व्ययोपि न सतो व्ययोप्यवस्थाव्ययः सतस्तस्य ।
प्रध्वंसाभाव: स च परिणामित्वात्सतोप्यवश्यं स्यात् ॥202॥
ध्रौव्यं सत: कथंचित् पर्यायार्थाच्च केवलं न सतः ।
उत्पादव्ययवदिदं तच्चैकांशं न सर्वदेशं स्यात् ॥203॥
तद्भावाव्ययमिति वा ध्रौव्यं तत्रापि सम्यगयमर्थः ।
यः पूर्वं परिणामो भवति हि पश्चात् स एव परिणाम: ॥204॥
पष्पस्य यथा गन्धः परिणामः परिणमंश्च गन्धगुण: ।
नापरिणामी गन्धो न च निर्गन्धाद्धि गन्धवत्पुष्पम् ॥205॥
तत्रानित्यनिदानं ध्वंसोत्पादद्वयं सतस्तस्य ।
नित्यनिदानं ध्रुवमिति तत्त्रयमप्यंशभेद: स्यात् ॥206॥
अन्वयार्थ : ऐसा मानना ठीक नहीं, क्योंकि द्रव्य परिणामी है यह पहले अच्छी तरह से बतला आये हैं इसलिये उसमें उत्पादादि तीन अच्छी तरह से घट जाते हैं । किन्तु द्रव्य को सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य मानने पर यह बात नहीं बनती है ।
उदाहरणार्थ - सोने के होने पर उसमें कुण्डलादिक भाव होते हैं और उन कुण्डलादिक भावों के होने पर ही उत्पादादिक तीन सिद्ध होते हैं ।
जिस प्रक्रिया से द्रव्य में उत्पादादि तीन की सिद्धि की है उसी प्रक्रिया से उसमें कारण और कार्य की सिद्धि भी कर लेनी चाहिये, क्योंकि ये दोनों भी सत् पदार्थ के ही होते हैं ।
द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा असत् का उत्पाद और सत् का विनाश तो दूर रहो किन्तु गुण का जो प्रमाण है तद्रूप वह सदा बना रहता है इसलिये उसमें स्थूलता और कृशता भी नहीं बन सकती है ।
इस प्रकार प्रकत में आगमानुसार पर्यायों का लक्षण कहा, अब उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का यथाशक्ति प्रथक्-प्रथक् लक्षण कहते हैं ।
उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय ये तीन पर्यायों के भेद हैं, सत् के नहीं । और पर्यायों को पहले द्रव्य बतला आये हैं इसलिए 'द्रव्य इन तीन रूप होता है', यह सिद्ध हुआ ।
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इनमें से परिणमन करनेवाले उस सत् की जो नवीन अवस्था होती है वह उत्पाद कहलाता है क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा तत् और अतत् भाव के समान वस्तु सत् और असत् भाव से निष्ठ है ।
तथा व्यय भी सत् का नहीं होता है किन्तु उस सत् की अवस्था का नाश व्यय कहलाता है जो कि प्रध्वंसाभावरुप प्राप्त होता है । यतः सत् परिणमनशील है अतः उसके इस प्रकार का व्यय अवश्य पाया जाता है ।
सत् का केवल ध्रौव्य ही हो यह बात नहीं है किन्तु पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से उसका कथंचित् ध्रौव्य होता है, क्योंकि उत्पाद और व्यय के समान यह ध्रौव्य भी अंशरूप है सर्वांशरूप नहीं है ।
अथवा 'जिस वस्तु का ज्ञो भाव है उसका व्यय नहीं होना' यह जो ध्रौव्य का लक्षण बतलाया गया है सो उसका ठीक अर्थ यह है कि जो परिणाम पूर्व समय में होता है तदनन्तर भी वही परिणाम होता है ।
जैसे पुष्प का गन्धरूप परिणाम है इसलिये गन्धगुण प्रति समय परिणमन करता रहता है । कुछ गन्ध को अपरिणामी तो माना नहीं जा सकता । यह भी नहीं माना जा सकता कि पहले पुष्प निर्गन्ध था और अब गन्धवाला हो गया है ।
उन तीनों में उत्पाद और व्यय ये दोनों तो उस सत् की अनित्यता के कारण हैं और ध्रुव नित्यता का कारण है । इस प्रकार ये तीनों ही अंशात्मक भेद है ।