सर्वं विप्रतिपन्नं भवति तथा सति गुणो न परिणाम: ।
नापि द्रव्यं न सदिति पृथक्त्वदेशानुषङ्गत्वात्‌ ॥208॥
अपि चैतद्दूषणमिह यन्नित्यं तद्धि नित्यमेव तथा ।
यदनित्यं तदनित्यं नैकस्यानेकधर्मत्वम्‌ ॥209॥
अपि चैकमिदं द्रव्यं गुणोयमेवेति पर्ययोऽयं स्यात् ।
इति काल्पनिको भेदो न स्याद-द्रव्यान्तरत्ववन्नियमात्‌ ॥210॥
अन्वयार्थ : क्योंकि ऐसा मानने पर सबको प्रथक्-प्रथक् देशता का प्रसंग प्राप्त होने के कारण गुण, पर्याय, द्रव्य और सत् इनमें से एक की भी सिद्धि नहीं होगी किन्तु सभी विवादापन्न हो जायगा ।
दूसरे प्रकृत में यह दूषण आता है कि जो नित्य है वह नित्य ही रहेगा और जो अनित्य है वह अनित्य ही रहेगा । कोई एक वस्तु अनेक धर्मात्मक सिद्ध न हो सकेगी ।
तीसरे 'यह द्रव्य है, यह गुण है, यह पर्याय है' ऐसा जो काल्पनिक भेद होता है सो वह भी द्रव्यान्तर के समान नहीं बन सकेगा ।