
तन्न यतो दृष्टान्त: प्रकृतार्थस्यैव वाधको भवति ।
अपि तदनुक्तस्यास्य प्रकृतविपक्षस्य साधकत्वाच्च ॥212॥
अर्थान्तरं हि न सतः परिणामेभ्यो गुणस्य कस्यापि ।
एकत्वाज्जलघेरिव कलितस्य तरङ्गमालाभ्यः ॥213॥
किन्तु य एव समुद्रस्तङ्गमाला भवन्ति ता एव ।
यस्मात्स्वयं स जलधिस्तरङ्गरूपेण परिणमति ॥214॥
तस्मात्स्वयमुत्पादः सदिति ध्रौव्यं व्ययोपि वा सदिति ।
न सतोऽतिरिक्त एव हि व्युत्पादो वा व्ययोपि वा ध्रौव्यम् ॥215॥
यदि वा शुद्धत्वनयान्नाप्युत्पादो व्ययोपि न ध्रौव्यम् ।
गुणश्च पर्यय इति वा न स्याच्च केवलं सदिति ॥216॥
अयमर्थो यदि भेद: स्यादुन्मज्जति तदा हि तत्त्रितयम् ।
अपि तत्-त्रितयं निमज्जति यदा निमज्जति स मूलतो भेद: ॥217॥
अन्वयार्थ : ऐसा मानना ठीक नहीं हैं, क्योंकि यह दृष्टान्त प्रकत अर्थ का ही बाधक है और शंकाकार के द्वारा नहीं कहे गये प्रकत अर्थ के विपक्षभूत अर्थ का साधक है ।
वह विपक्षभूत अर्थ का किस प्रकार साधक है यह बतलाते हैं -- जिस प्रकार तरंगमालाओं से व्याप्त समुद्र एक ही है । उसी प्रकार किसी भी गुण की पर्यायों से सत् सर्वथा भिन्न नहीं है किन्तु जो समुद्र है वे ही तरंगमालाएं हैं क्योंकि वह समुद्र स्वयं ही तरंगरूप से परिणमन करता है।
इसलिये स्वयं सत् ही उत्पाद है, स्वयं सत् ही ध्रौव्य है और स्वयं सत् ही व्यय है । सत् से भिन्न न उत्पाद है, न व्यय है और न ध्रौव्य है ।
अथवा शुद्धनय से न उत्पाद है, न व्यय है, न ध्रौव्य है, न गुण है और न पर्याय है किन्तु केवल एक सत् है ।
सारांश यह है कि यदि भेद विवक्षित होता है तब तो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों ही प्रथक्-प्रथक् प्रतीत होने लगते हैं और यदि मूछ में भेद ही विवक्षित नहीं रहता है तो वे तीनों ही प्रतीत नहीं होते हैं ।