
तन्न यतः क्षणभेदो न स्यादेकसमयमात्रं तत् ।
उत्पादादित्रयमपि हेतोः संदृष्टितोऽपि सिद्धत्वात् ॥234॥
अथ तद्यथा हि बीजं बीजावसरे सदेव नासदिति ।
तत्र व्ययो न सत्वाद्-व्ययश्च तस्मात्सदङ्कुरावसरे ॥235॥
बीजावस्थायामपि न स्यादङ्कुरभवोऽस्ति वाऽसदिति ।
तस्मादुत्पादः स्यात्स्वावसरे चाङ्कुरस्य नान्यत्र ॥236॥
यदि वाबीजाङ्कुरयोरविशेषात् पादपत्वमिति वाच्यम् ।
नष्टोत्पन्नं न तदिति नष्टोत्पन्नं च पर्ययाभ्यां हि ॥237॥
आयातं न्यायबलादेतद्यत्रितयमेककालं स्यात् ।
उत्पन्नमङ्कुरेण च नष्टं बीजेन पादपत्वं तत् ॥238॥
अपि चाङ्कुरसृष्टेरिह य एव समयः स बीजनाशस्य ।
उभयोरप्यात्मत्वात् स एव कालश्च पादपत्त्वस्य ॥239॥
तस्मादनवद्यमिदं प्रकृतं तत्त्वस्य चैकसमये स्यात् ।
उत्पादादित्रयमपि पर्यायार्थान्न सर्वथापि सतः ॥240॥
अन्वयार्थ : यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों में समय-भेद नहीं है किंतु ये उत्पादादिक तीनों ही एक समयवर्ती हैं, यह बात हेतु और दृष्टांत दोनों से सिद्ध होती है ।
खुलासा इस प्रकार है कि बीज बीज के समय में सत् ही है असत् नहीं है, इसलिये अंकुर के समय उसका सद्रूप से व्यय नहीं होता किन्तु बीज रूप से ही व्यय होता है ।
तथा इसी प्रकार बीज रूप अवस्था के रहते हुए अंकुर की उत्पत्ति न होकर अभाव ही रहा आता है, इसलिये अंकुर का उत्पाद भी अपने समय में ही होता है, अन्य समय में नहीं ।
अब बीज और अंकुर इन दोनों को सामान्य रूप से यदि वृक्ष कहा जाय तो वृक्ष स्वयं न नष्ट होता है और न उत्पन्न किन्तु अपनी बीज और अंकुररूप पर्यायों की अपेक्षा ही उसका नाश और उत्पाद होता है ।
इस प्रकार न्याय-बल से यह सिद्ध हुआ कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों एक कालवर्ती हैं, क्योंकि अंकुर का उत्पाद ही बीज का विनाश है और वृक्ष भी वही है ।
तात्पर्य यह है कि अंकुर के उत्पन्न होने का जो समय है वही समय बीज के नाश होने का है तथा बीज और अंकुर ये दोनों वृक्षरूप होने के कारण वृक्ष का भी वही काल है ।
इसलिये यह बात निर्दोष रीति से सिद्ध होती है कि पदार्थ के एक समय में पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से उत्पादादिक तीनों ही सिद्ध होते हैं, किन्तु सर्वथा सत् के नहीं होते हैं ।