अप्पायत्तउ जं जि सुहु तेण जि करि संतोसु ।
पर सुहु वढ चितंतंयहं हियइ ण फिट्टइ सोसु ॥3॥
अन्वयार्थ :
हे वत्स ! जो सुख आत्मा के आधीन है, उसी से तू सन्तोष कर । जो पर में सुख का चिन्तन करता है, उसके मन का सोच कभी नहीं मिटता ।