जं सुहु विसयपरंमुहउ णिय अप्पा झायंतु ।
तं सुहु इंदु वि णवि लहइ देविहिं कोडि रमंतु ॥4॥
अन्वयार्थ :
विषयों से पराङ्मुख होकर अपने आत्मा के ध्यान में जो सुख होता है, वह सुख करोड़ों देवियों के साथ रमण करने वाले इन्द्र को भी नही मिल सकता ।