सप्पें मुक्की कंचुलिय जं विसु ते ण मुएइ।
भोयहं भाउ ण परिहरइ लिंगग्गहणु करेइ ॥16॥
अन्वयार्थ : सर्प बाहर में केचुली को तो छोड़ देता है, परन्तु भीतर के विष को नही छोडता, उसी प्रकार अज्ञानीजीव द्वव्यलिंग धारण करके बाह्य-त्याग तो करता है, परन्तु अन्तर में से विषय-भोगों की भावना का परिहार नहीं करता ।