जो मुणि छंडिवि विसयसुहु पुणु अहिलासु करेइ ।
लुंचणु सोसणु सो सहइ पुणु संसारु भमेइ ॥17॥
अन्वयार्थ :
जो मुनि छोड़े हुए विषयसुखों की फिर से अभिलाषा करता है, वह मुनि केशलोंच एवं शरीर-शोषण के क्लेश को सहन करता हुआ भी संसार में ही परिभ्रमण करता है ।