विसयसुह दुइ दिवहडा पुणु दुक्खहं परिवाडि ।
भुल्लउ जीव म बाहि तुहं अप्पाखंधि कुहाडि ॥18॥
अन्वयार्थ :
ये विषय-सुख तो दो दिन रहनेवाले क्षणिक हैं, फिर तो दु:खों की ही परिपाटी है । इसलिये हे जीव ! भूल कर तू अपने ही कंधे पर कुल्हाड़ी मत मार ।