उव्वडि चोप्पडि चिट्ठ करि देहि सुमिट्ठाहारु ।
सयल वि देह णिरत्थ गय जिम दुज्जण उवयारु ॥19॥
अन्वयार्थ : जैसे दुश्मन के प्रति किये गये उपकार बेकार जाते हैं, वैसे हे जीव ! तू इस शरीर को स्नान कराता है, तेल-मर्दन कराता है तथा सुभिष्ठ भोजन खिलाता है, वे सब निरर्थक जानेवाले हैं (अर्थात्‌ यह शरीर तेरा कुछ भी उपकार करने वाला नहीं है), अत. तू इसकी ममता छोड़ दे ।