देहहो पिक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि ।
जो अजरामरु बंभु परु सो अप्पाण मुणेहि ॥34॥
देहहं उन्भउ जरममरणु देहहं वण्ण विचित्त ।
देहहं रोया जाणि तूहुं देहहं लिंगइं मित्त ॥35॥
अत्थि ण उब्भउ जरमरणु रोय वि लिंगइं वण्ण ।
णिच्छड अप्पा जाणि तुहुं जीवहं णेक्क वि सण्ण ॥36॥
अन्वयार्थ : हे जीव ! देह का जरा-मरण देखकर तू भय मत कर, अपने आत्मा को तू अजर-अमर परम-ब्रह्म जान ।
जरा तथा मरण ये दोनों देह के हैं, विचित्र वर्ण भी देह के ही हैं और हे जीव ! रोग को भी तू शरीर का ही जान, एवं लिंग भी शरीर के ही हैं ।
हे आत्मन्‌ ! निश्चय से तू ऐसा जान कि इनमें से एक भी संज्ञा जीव की नहीं है, जन्म या मरण ये दोनों जीव के नहीं है, रोग नहीं हैं तथा लिंग या वर्ण भी नहीं है ।