+ गाथा ४१-५० -
बुज्झहु बुज्झहु जिणु भणइ को बुज्झउ हलि अण्णु ।
अप्या देहहं णाणमउ छुहु बुज्झियउ विभिण्णु ॥41॥
अन्वयार्थ : कोई कहता है कि हे जीवों ! तुम जिन को जानो.. जानो । किन्तु यदि ज्ञानमय आत्मा को देह से अत्यन्त भिन्न जान लिया, तो भला और क्या जानने को शेष रहा ?